Maharashtra Politics: एक से भले दो, दो से भले तीन, मगर...!, स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों से समझा जा...
By Amitabh Shrivastava | Updated: June 21, 2025 06:07 IST2025-06-21T06:07:06+5:302025-06-21T06:07:06+5:30
Maharashtra Politics: जीत की सच्चाई अभी समझना बाकी है. जिसे कुछ माह में होने जा रहे स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों से समझा जा सकता है.

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Maharashtra Politics: महाराष्ट्र में शायद ही कोई ऐसा साल बीतता हो, जिसमें शिवसेना के एक होने का सपना न सजाया जाता हो. पार्टी के शुभचिंतक किंचित बातों को संकेत मान आशा का पहाड़ बना बैठते हैं, जो रेत के टीलों से अधिक मजबूत नहीं रह पाता है. राज्य में लोकसभा, विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. जिनमें शिवसेना से विभाजित दलों ने अपनी ताकत को अजमाया है. किसी को एक तो किसी को दूसरे चुनाव में सफलता मिली. लेकिन जीत की सच्चाई अभी समझना बाकी है. जिसे कुछ माह में होने जा रहे स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों से समझा जा सकता है.
सर्वविदित है कि शिवसेना की स्थानीय निकायों, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों पर अच्छी पकड़ है. किंतु लगातार विभाजनों से अनेक शहरों का संगठन कमजोर हुआ है. जिसका सबसे अधिक खतरा मुंबई और आस-पास में दिख रहा है. शिवसेना से अलग बनी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) और शिवसेना एकनाथ शिंदे गुट आपस में ही नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं.
नई पार्टियां बनने से कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षा भी बढ़ी है, जो कहीं खेल बना और बिगाड़ सकती हैं. सवाल यह है कि यदि तीनों दल आपस में मिल भी जाएं तो अपनी स्थिति कितनी मजबूत कर पाएंगे? इसका जवाब लंबे समय से राजनीति करने वालों के पास है, लेकिन वे सच बोलना नहीं चाहते हैं. एक ऐसी चर्चाओं का माहौल, जहां ठाकरे बंधुओं को मिलाने की बात हो रही हो,
उसी में शिवसेना के वरिष्ठ नेता गजानन कीर्तिकर कहते हैं कि एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे को एक साथ आना चाहिए. वह अपनी उम्र और अनुभव के मान को सामने रखकर मध्यस्थता करने का भी प्रस्ताव रखते हैं. हालांकि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और उपमुख्यमंत्री अपनी-अपनी सभाओं में एक-दूसरे के बारे में जो बोलते हैं, उसे सभी सुनते हैं.
राज्य की दोनों सेनाओं का नेतृत्व करने वाले अपनी महत्वाकांक्षा के चलते पार्टी के नुकसान की बात नहीं करते हैं, लेकिन जमीनी नेता मानते हैं कि दो गुट बनने से पार्टी को बहुत बड़ा नुकसान हुआ. दो-दो स्थापना दिवस मनाए जाते हैं, दो-दो दशहरा रैलियां होती हैं. उन्हें लगता है कि यदि शिवसेना के दोनों धड़े एकजुट हो जाएं तो महाराष्ट्र में शिवसेना की कितनी बड़ी शक्ति खड़ी हो सकती है.
इसी प्रकार की सोच ठाकरे बंधुओं को लेकर है. जिसमें यह माना जाता है कि नाम और पहचान महाराष्ट्र में आज भी चलता है. यदि एकता हुई तो शिवसेना भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) को तगड़ी चुनौती देने की स्थिति में होगी. किंतु शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के साथ समझौता कर खुद को मंझधार में ला दिया है.
यदि उसे समझौता तोड़ना है तो पार्टी के बनते धर्मनिरपेक्ष चेहरे को नुकसान होगा और सहानुभूति जताने वाले दो दल दुश्मन बन जाएंगे. यदि शिवसेना का शिंदे गुट एक होने की बात को स्वीकार करता है तो उसके समक्ष नेतृत्व का संकट खड़ा हो जाएगा. यही कुछ स्थिति मनसे की भी है. ऐसे में सब साथ आने की बात करते हैं, लेकिन कोई एकजुटता के बाद भावी नेतृत्व के बारे में बोलने का खतरा मोल नहीं लेता है.
यह तय है कि भाजपा परंपरा के अनुसार स्थानीय निकायों के चुनावों में पूरी क्षमता के साथ मैदान में उतरेगी. उसका लक्ष्य राज्य के बड़े स्थानीय निकायों को हथियाना होगा. बीते वर्षों में उसे नागपुर के अलावा किसी बड़े शहर में बड़ी सफलता नहीं मिली है. इसलिए उसकी पहली नजर मुंबई पर है. फिर वह पुणे पर पूर्ण अधिकार जमाना चाहती है.
नासिक, छत्रपति संभाजीनगर और नांदेड़ उसके ‘रडार’ पर हैं. इन स्थानों पर शिवसेना का बोलबाला रहा है. यदि यहां भाजपा हावी होती है तो राज्य की तीनों सेनाओं के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगेगा. इन चुनावों में राकांपा का अजित पवार गुट भी शांति से नहीं बैठेगा. वह भी पूरा जोर लगाएगा.
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) राज्य के अनेक स्थानीय निकायों में निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है. इसलिए निचले स्तर पर होने वाले चुनाव सभी दलों के लिए कई अर्थों में महत्वपूर्ण बन चुके हैं. राजनीति में विभाजन, फूट, बगावत जैसी स्थितियों का पहले भी अनेक दलों ने सामना किया है.
कांग्रेस कई बार टूटी, जनता पार्टी से लेकर जनता दल अक्सर टूटते रहे. जनसंघ से भाजपा बनी. किंतु इतिहास में टूटकर जुड़ना और दोबारा पुराना औरा पाना कभी दिखाई नहीं दिया. परिवार और रिश्तों की दुहाई देकर एकजुटता कभी बन नहीं पाई. शिवसेना के इतिहास में टूटकर अलग बने दल या नेता न तो स्वतंत्र छवि बना पाए और न अकेले कभी बड़ी जीत हासिल कर पाए.
जिससे एकीकरण के मुद्दे को जनमत के आधार पर मुहर लगती नहीं दिखती है. कार्यकर्ताओं के उत्साह के बावजूद नेताओं के कदम आगे नहीं बढ़ते हैं. उन्हें भावनाओं के मतों में परिवर्तित होने का भरोसा नहीं आता है. फिर भी चर्चाओं की गरमाहट का आनंद लिया जाता है. यह जानते हुए कि बीते सालों में संबंधों की मजबूती के ऊपर कितना पानी बह चुका है.
मूल शिवसेना अतीत में छगन भुजबल की बगावत के बाद नारायण राणे का पार्टी छोड़ना और फिर परिवार के सदस्य का ही दूसरा दल बनाना देखती आई है. उसे वर्ष 2022 की फूट का सबसे बड़ा झटका लगा, लेकिन उससे निपटने का उपाय नहीं मिला. फिर भी वर्तमान में चल रही सारी उठापटक के बावजूद तीनों शिवसेना के चुनावी प्रदर्शन को मिलाकर देखा जाए तो भगवा दल के लोकसभा में कुल 16 (9+7) सांसद दिखते हैं और विधानसभा में 77 सदस्य (57+20) हो जाते हैं. यह प्रदर्शन पिछले कई चुनावों से कहीं अधिक भिन्न नहीं है.
यानी एक और अलग होने का अंतर अभी तक दर्ज नहीं हो पाया है. इसलिए एक से दो और दो से तीन होने के बाद फिर एक होने का कोई नफा-नुकसान नजर नहीं आता है. कुछ यही वजह है कि हवाओं व चर्चाओं के बावजूद स्थितियां वहीं हैं, जहां कल थीं और शायद परसों भी वहीं दिखाई दें. मगर,
मालूम है कि ख्वाब झूठे हैं और ख्वाहिशें अधूरी हैं,
पर जिंदा रहने के लिए कुछ गलतफहमियां भी जरूरी हैं.