प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: चपरासी तक बनने को क्यों तरस रहे उच्च शिक्षित?

By प्रमोद भार्गव | Published: January 7, 2022 05:18 PM2022-01-07T17:18:31+5:302022-01-07T17:19:19+5:30

गांधीजी ने 75 साल पहले ही शिक्षा को श्रम से जोड़ने के साथ उत्पादन से भी जोड़ने की बात कही थी. लेकिन मैकाले की शिक्षा प्रणाली के जरिये हुक्मरान बने प्रशासकों के दिमाग पूर्वाग्रही और राष्ट्रीय स्वाभिमान से अछूते रहे.

Madhya Pradesh- Why are highly educated longing to become a peon | प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: चपरासी तक बनने को क्यों तरस रहे उच्च शिक्षित?

चपरासी तक बनने को क्यों तरस रहे उच्च शिक्षित?

मध्यप्रदेश के विभिन्न जिला एवं उच्च न्यायालयों में चपरासी व सफाईकर्मियों की भर्ती प्रक्रिया चल रही है. एक से लेकर एक दर्जन तक रिक्त चपरासी एवं सफाईकर्मियों के पदों के लिए शिक्षित होने की पात्नता तो आठवीं एवं दसवीं है, लेकिन देखने में आ रहा है कि इन पदों को पाने के लिए इंटर, स्टेनो, स्नातक, स्नातकोत्तर, एमबीए एवं इंजीनियर कतार में लग रहे हैं. 

महिलाओं की भी लंबी कतार देखने में आ रही है. यह तस्वीर केवल मध्यप्रदेश की ही नहीं है, बल्कि इस आईने में समूचे देश की बेरोजगारी का अक्स देखा जा सकता है. देश में बेरोजगारी के आंकड़ों पर नजर रखने वाली संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी  ने बताया है कि दिसंबर 2021 में बेरोजगारी की दर बढ़कर 9.3 हो गई है. जबकि यही दर इसी साल अगस्त माह में 8.32 फीसदी थी. 

साफ है कि बेरोजगारी सुरसा के मुख की तरह बढ़ रही है. हरियाणा में बेरोजगारी की दर 35.7, राजस्थान में 26.7 है. साफ है कि कौशल प्रशिक्षण जैसे टोटकों और रोजगार मेलों से बेरोजगारी दूर होने वाली नहीं है. इसके लिए न केवल ठोस उपाय करने होंगे, बल्कि युवाओं को ज्ञान परंपरा से जोड़कर स्थानीय स्तर पर रोजगार सुलभ कराने होंगे.    
भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों और विशाल जन समुदाय की मानसिकता के आधार पर यदि सार्थक शिक्षा के बारे में किसी ने सोचा था तो वे महात्मा गांधी थे. उनका कहना था, ‘बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, आंख, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है. 

अर्थात इंद्रियों के बुद्धिपरक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम और लघुत्तम मार्ग खुलता है. परंतु जब मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जागृति न होती रहे तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा.’

गांधी के सिद्धांत, नैतिकता और अनुभवों को सर्वथा ताक पर रखकर हमने आजादी के बाद पूरी शिक्षा पद्धति को बालक के एकांगी विकास में लगा दिया. जबकि ऐसी शिक्षा पद्धतियों को विकसित करना था, जिनसे बालक का संपूर्ण विकास संभव होता. एकांगी शिक्षा को अपने आर्थिक हितों को साध्य बनाने की दृष्टि से पब्लिक स्कूलों की अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ने बेवजह महत्व दिया. 

नतीजतन आज सुविधाजनक और आर्थिक सुरक्षा के लिए सरकारी अथवा लिमिटेड कंपनियों में नौकरी पाने वाले डिग्रीधारियों की लंबी कतारें लगी हैं.  उन लोगों के लिए न तो हमारे पास  रोजगारमूलक ऐसे सरकारी, गैरसरकारी उपक्रम हैं जिनमें इन्हें रोजगार दिया जा सके और न इन डिग्रीधारियों की ऐसी इच्छा है जिससे ये स्थानीय अथवा क्षेत्नीय संसाधनों से लघु या कुटीर उद्योग स्थापित कर अपनी रोजी-रोटी के लिए साधन तैयार कर सकें.

हमारा यह शिक्षित वर्ग खेती को भी तैयार नहीं है. यदि गांधीजी के कहे अनुसार स्वतंत्नता के साथ ही शिक्षा को श्रम से जोड़ दिया जाता और शिक्षा को बालक के संपूर्ण विकास की अनिवार्य शर्त मान लिया जाता तो शिक्षा और रोजगार के बीच आज की तरह ये विडंबनापूर्ण स्थितियां निर्मित ही नहीं होतीं.

गांधीजी का स्पष्ट मत था कि शालाओं में छह घंटे दी जाने वाली शिक्षा में से केवल दो घंटे किताबी ज्ञानार्जन के लिए निश्चित हों, शेष समय में छात्रगम श्रम आधारित कार्यो द्वारा सीखें. लेकिन हमने इसका अनुकरण करने की बजाय उस मैकाले की शिक्षा पद्धति का अनुकरण किया जो हमारे दिमागों को गुलाम बनाने के लिए बेहद सोची-समझी साजिश के साथ लागू की गई थी.  

गांधीजी ने खुले शब्दों में कहा था, ‘मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद रखी थी, उसने हमें गुलाम बना दिया. मेरा यह दृढ़ मत है कि अंग्रेजी शिक्षा जिस ढंग से दी गई है, उसने अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों को स्वत्वहीन बना दिया है. भारतीय विद्यार्थियों के दिमाग पर बहुत जोर डाला है और हमें नकलची बना दिया है.’ 

गांधीजी ने 75 साल पहले ही शिक्षा को श्रम से जोड़ने के साथ उत्पादन से भी जोड़ने की बात कही थी. लेकिन मैकाले की शिक्षा प्रणाली के जरिये हुक्मरान बने प्रशासकों के दिमाग पूर्वाग्रही और राष्ट्रीय स्वाभिमान से अछूते रहे. इसलिए शिक्षा को उत्पादन से जोड़ने के पहलुओं को भी श्रम की तरह सर्वथा नजरअंदाज कर दिया गया. 

शिक्षा को आरंभ में ही श्रम से जोड़ दिया जाता तो वह उत्पादन से स्वमेव जुड़ जाती क्योंकि गांधीजी का श्रम से आशय केवल स्वास्थ्य सुधार संबंधी कसरतों से नहीं था. विद्यार्थियों के श्रम का उपयोग खेती, कताई और शालाओं के भवन व खेल मैदानों के निर्माणों से जुड़ा हुआ था.

युगीन परिस्थितियों के अनुरूप भी शिक्षा में बदलाव लाना जरूरी है. मौजूदा आवश्यकताओं की पूर्ति को ध्यान में रखते हुए यह तय है कि अब शिक्षा केवल ज्ञान और वैचारिक उन्नयन तक सीमित नहीं रह सकती. इसलिए आज शिक्षा का माहौल उन लोगों के बीच भी बनना शुरू हो गया है जिनकी कई पीढ़ियां शिक्षा से कटी रहीं या सामंती मूल्यों के पोषण के चलते जानबूझकर उपेक्षा की गई. 

आज गरीब मजदूर भी अंग्रेजी एवं कम्प्यूटर शिक्षा अपने बच्चे को देने की बात करने लगा है. लेकिन इनके बालकों के शिक्षार्जन के लिए गरीबी सबसे बड़ी बाधा है. इस शिक्षा का दुष्परिणाम यह है कि यह वैकल्पिक रोजगार की पृष्ठभूमि विद्यार्थी के मन में तैयार नहीं कर पाती. 

दूसरी ओर यह शिक्षा विद्यार्थियों को परिवार के पारंपरिक पेशे से काट देती है. ऐसे में डिग्रीधारी शिक्षित बेरोजगारों की स्थिति त्रिशंकु की तरह है. नई शिक्षा नीति में इन समस्याओं के हल खोजने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन सफलता कितनी मिलती है, यह तो समय ही बताएगा.

Web Title: Madhya Pradesh- Why are highly educated longing to become a peon

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