विजय दर्डा का ब्लॉगः इस चुनाव ने राजनीति की जड़ें हिला दी हैं!
By विजय दर्डा | Published: May 13, 2019 06:12 AM2019-05-13T06:12:10+5:302019-05-13T06:12:10+5:30
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत और पवित्र बनाने का श्रेय पंडित जवाहरलाल नेहरू को जाता है. उस जमाने में ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक केवल कांग्रेस थी, मजबूत विपक्ष का नामो निशान नहीं था. उस दौर में नेहरूजी ने यह कहा कि यदि विपक्ष नहीं होगा तो व्यवस्था चौपट हो जाएगी. विपक्ष बहुत जरूरी है.
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे/ जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिदा न हों! मशहूर शायर बशीर बद्र का ये शेर इस चुनाव में बड़ा मौजूं हो गया है क्योंकि लोकतंत्र का महापर्व नेताओं की बदजुबानी के कारण सत्ता के लिए जंग में तब्दील हो चुका है. एक दूसरे पर इस तरह जहर बुङो शब्दों के बाण चलाए जा रहे हैं जैसे दु्श्मनी के लिए मैदान में उतरे हों! जैसे कौरवों और पांडवों की लड़ाई चल रही हो.
मैं बड़ी पीड़ा के साथ यह कहने को मजबूर हूं कि इस तरह का चुनाव मैंने बचपन से लेकर अब तक कभी नहीं देखा. पंडित नेहरू के जमाने से लेकर अब तक के सारे चुनाव मुझे याद हैं. 18 वर्षो के संसदीय कार्यकाल में मैंने राजनीतिक क्षेत्र के कई उतार-चढ़ाव देखे, बड़ी सूक्ष्मता के साथ चुनावों को देखा, सत्ता को बदलते देखा, प्रधानमंत्रियों को आते जाते देखा. इस देश के मतदाताओं की शक्ति देखी. बड़े-बड़े दिग्गजों को धराशायी होते देखा. इन सबके बावजूद हमेशा लोकतंत्र को जीतते देखा, समाज को जीतते देखा. लेकिन इस चुनाव ने भारतीय राजनीति को जितना कलंकित किया है और समाज के भीतर जो कड़वाहट घोल दी है, वैसा पहले कभी नहीं देखा!
मेरे बाबूजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहरलाल दर्डा महाराष्ट्र की राजनीति के दिग्गज थे इसलिए मैंने राजनीति को बचपन से ही बड़े करीब से देखा है. फिर संसदीय राजनीति का सक्रिय हिस्सा बनने का मौका मिला. इस पूरे दौर में मैंने राजनीति की पवित्रता को देखा है. मुझे अच्छी तरह याद है कि 1962 में लोकनायक बापूजी अणो नाग विदर्भ आंदोलन समिति के समर्थन से तीसरी लोकसभा के लिए नागपुर क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे.
कांग्रेस की ओर से प्रत्याशी थे रिखबचंद शर्मा. उनके प्रचार के लिए जवाहरलाल नेहरू नागपुर आए. जनसभा में उन्होंने कहा कि वे अपनी पार्टी के प्रचार के लिए आए हैं लेकिन लगे हाथ उन्होंने अणो साहब की भी बड़ी तारीफ की. उन्होंने कहा कि अणो साहब मेरे आदरणीय हैं. उस समय ऐसी थी चुनाव की पवित्रता. रिश्तों का और व्यक्तित्व का बड़ा मान-सम्मान हुआ करता था. जितने भी बड़े नेता थे उनके प्रति सम्मान का भाव होता था. कोई लांछन नहीं लगाया जाता था.
दरअसल भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत और पवित्र बनाने का श्रेय पंडित जवाहरलाल नेहरू को जाता है. उस जमाने में ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक केवल कांग्रेस थी, मजबूत विपक्ष का नामो निशान नहीं था. उस दौर में नेहरूजी ने यह कहा कि यदि विपक्ष नहीं होगा तो व्यवस्था चौपट हो जाएगी. विपक्ष बहुत जरूरी है.
उन्होंने इस बात की व्यवस्था की कि विपक्ष के जितने भी दिग्गज थे सभी संसद में पहुंचें. और ये वो लोग थे जो नेहरूजी पर तीखे वैचारिक हमले किया करते थे. मुङो ध्यान है हेम बरुआ नाम के एक एमपी थे. उन्होंने एक बार नेहरूजी के लिए अपशब्द का प्रयोग कर दिया था. नेहरूजी के निधन के बाद एक जाने-माने संपादक ने बरुआ से पूछा कि आपने पार्थिव शरीर को तीन बार क्यों प्रणाम किया?
हेम बरुआ ने कहा कि पहला प्रणाम इस देश के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को, दूसरा प्रणाम लोकतंत्र में विश्वास करने वाले प्रधानमंत्री को और तीसरा प्रणाम इसलिए कि जब मैंने उनके बारे में अपशब्द कहे तो पंडितजी ने एक हफ्ते बाद मुङो बुलाकर कॉफी पिलाई और कहा कि आपका भाषण बहुत उग्र था मगर पोएटिक था. तब मैंने माफी नहीं मांगी थी! हेम बरुआ असमी भाषा के प्रतिष्ठित कवि भी थे.
मुझे एक किस्सा याद आ रहा है जो अटलजी ने सुनाया था. वे सत्ता में आए तो अचानक देखा कि संसद के कॉरिडोर से नेहरूजी का पोट्र्रेट गायब है. अटलजी ने कहा कि लोकतंत्र में सरकारें आएंगी, जाएंगी, लेकिन लोकतंत्र जिंदा रहना चाहिए. देश के जितने भी प्रधानमंत्री रहे हैं, उन्हीं के कारण देश यहां पर है. मुझे बहुत कष्ट हो रहा है कि युवा अवस्था से जो तस्वीर मैं यहां देखता था, वह आज यहां नहीं है. शाम तक वह तस्वीर अपनी जगह लगा दी गई.
राजनीतिक पवित्रता और विपक्ष के प्रति सम्मान के ऐसे किस्सों के बीच आज मैं महसूस कर रहा हूं कि देश का वातावरण गंदगी से भर गया है. समाज दो टुकड़ों में बंटा नजर आ रहा है. ऐसा संदेश दिया जा रहा है कि आप यदि समर्थक हैं तो राष्ट्रवादी हैं, समर्थक नहीं हैं तो आपका देशप्रेम संदेह के घेरे में है! नेताओं की बदजुबानी चरम पर है. भाषाई निरंकुशता साफ नजर आ रही है. जो नेता अब इस दुनिया में नहीं हैं, उन्हें बदनाम करने का सुनियोजित षड्यंत्र रचा जा रहा है. धर्म के नाम पर लोगों को खेमाबंद किया जा रहा है. सैनिकों की वीरता का क्रेडिट लूटा जा रहा है. इन सब पर चुनाव आयोग को लगाम लगाना चाहिए था लेकिन लोकतंत्र के इस महापर्व में चुनाव आयोग ने बहुत निराश किया है. उसकी चुप्पी ने सबको बेलगाम हो जाने दिया.
इस चुनाव ने समाज को तो तोड़ा ही है, राजनीति की जड़ें भी हिला दी हैं. राजनीति में मतभेद स्वाभाविक चीज है. होना भी चाहिए लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए. ऐसी कटुता नहीं होनी चाहिए कि समाज टूटने लगे. ध्यान रखिए कि चुनाव तो अभी समाप्त हो जाएंगे, लेकिन जहर बुङो बयानों ने समाज को जो घाव दिया है, उसे भरने में न जाने कितना वक्त लगेगा!