विजय दर्डा का ब्लॉग: राहुल गांधी के साथ मिलकर राजनीति की नई इबारत लिखेंगी प्रियंका गांधी
By विजय दर्डा | Published: January 28, 2019 11:02 AM2019-01-28T11:02:56+5:302019-01-28T11:22:24+5:30
प्रियंका गांधी के भी मैदान में आने के बाद न केवल भारतीय जनता पार्टी परेशान है बल्कि दूसरे राजनीतिक दल भी परेशान हो गए हैं क्योंकि वे कांग्रेस को दरकिनार करने की राजनीति कर रहे थे.
प्रियंका गांधी को लेकर न केवल कांग्रेस कार्यकर्ता बल्कि आम लोग भी बड़े सकारात्मक नजर आते हैं. सभी को उनमें एक बड़ी उम्मीद नजर आती है. बहुत से लोग उनमें इंदिरा गांधी का अक्स भी देखते हैं. खास तौर पर अमेठी और रायबरेली के लोगों के साथ उनका गहरा नाता रहा है और वहां के लोग बताते हैं कि आम आदमी से प्रियंका गांधी इस कदर घुल-मिल जाती हैं कि कई बार उनके सुरक्षाकर्मी भी हैरत में पड़ जाते हैं.
उनकी सहजता, सरलता और सलीका सबको लुभाता है. मैं खुद उन्हें काफी लंबे समय से जानता रहा हूं और मैंने महसूस किया है कि उनमें दूरदृष्टि और बहुत सरलता है. देश को लेकर तड़प है और आम आदमी की जिंदगी कैसे खुशहाल बने, इसे लेकर वे चिंतित भी नजर आती हैं.
यही कारण है कि उनके सक्रिय राजनीति में पदार्पण का चौतरफा स्वागत भी हो रहा है. पिछले साल जुलाई में प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के उन सभी नेताओं से अलग-अलग मुलाकात की थी जो पार्टी के विभिन्न विभागों का संचालन कर रहे हैं. उन्होंने ऐसे सभी नेताओं से बस एक ही सवाल पूछा कि अगले 100 दिन का उनके पास क्या एजेंडा है?
यह सवाल ही अपने आप में महत्वपूर्ण है. यह एक नेतृत्वकर्ता की असल पहचान है कि वह अपने साथियों के नजरिए को जानने की कोशिश करे. नेताओं से इन मुलाकातों के बाद यह लगने लगा था कि प्रियंका गांधी अब मैदान में पूरी सक्रियता के साथ आने को तैयार हैं. ऐसा नहीं है कि वे पहले मैदान में नहीं थीं. अमेठी और रायबरेली में विभिन्न चुनावों के दौरान वे पर्दे के पीछे से सक्रिय रही हैं. जनसेवा उनके खून में है और राजनीति का कौशल वे तेजी से सीखती रही हैं.
प्रियंका गांधी कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता
यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मौजूदा दौर में कांग्रेस के लिए वे तुरुप का पत्ता हैं. कांग्रेस बस सही समय का इंतजार कर रही थी. राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने हाल के विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में परचम फहराया है. कांग्रेस को उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के साथ प्रियंका की शक्ति जीत की नई इबारत लिखने में कामयाब होगी.
प्रियंका गांधी के भी मैदान में आने के बाद न केवल भारतीय जनता पार्टी परेशान है बल्कि दूसरे राजनीतिक दल भी परेशान हो गए हैं क्योंकि वे कांग्रेस को दरकिनार करने की राजनीति कर रहे थे. सपा और बसपा ने तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को दरकिनार ही कर दिया है. कांग्रेस ने यह कह कर सबको चौंका दिया है कि वह उत्तर प्रदेश की पूरी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. हालांकि राहुल गांधी ने गठबंधन का रास्ता खुला रखकर अपनी दरियादिली भी दिखाई है.
उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं. सबसे बड़ी बात कि कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रियंका गांधी को महासचिव बनाने के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का दायित्व सौंपा है जो आज के दौर में राजनीति के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण इलाका है.
इसी इलाके में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का निर्वाचन क्षेत्र भी है. प्रियंका ने बहुत बड़ी चुनौती स्वीकार की है. जहां भाजपा का मानना है कि प्रियंका के आने से सपा-बसपा कमजोर होंगी, वहीं कांग्रेस को लगता है कि इससे भाजपा कमजोर होगी. जबकि सपा-बसपा मानती हैं कि सबका टार्गेट अगर मोदी हैं तो कांग्रेस को सभी 80 सीटों पर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, इससे सबका नुकसान होगा.
यूपी की राजनीति पर जातिवाद हावी है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में दलित, मुसलमान और ब्राह्मणों की बड़ी आबादी चुनाव की दिशा तय करती रही है. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जब उत्तर प्रदेश में 21 सीटें जीती थीं तब 13 सीटें इसी इलाके से आई थीं. जाहिर है कि यहां कांग्रेस को चाहने वाले लोग हैं लेकिन वे बिछड़ कर भाजपा, सपा और बसपा के साथ चले गए.
प्रियंका गांधी को कांटों भरी राह पर चलना है
2014 के चुनाव में हालत यह हो गई थी कि इस इलाके की 33 सीटों में से 20 में कांग्रेस उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. इसी से समझा जा सकता है कि प्रियंका गांधी की राह आसान नहीं है, उन्हें कांटों भरे रास्ते पर चलना है. लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि प्रियंका के आने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार हुआ है. अब कांग्रेस यह उम्मीद कर रही है कि प्रियंका गांधी का आभा मंडल बिछड़ों को पार्टी के साथ जोड़ेगा.
कांग्रेस की खोई हुई जमीन वापस मिल जाएगी. कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, पर यह भी सत्य है कि यूपी में उसका वजूद नहीं है. लेकिन शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी और प्रियंका को लाकर उसने वह शुरुआत कर दी है. अब देखना है कि इससे किसको फायदा होगा.
2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस के तेवर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी ने साफ-साफ कह दिया है कि कांग्रेस अब बैकफुट पर नहीं बल्कि फ्रंटफुट पर खेलेगी. निश्चित रूप से फ्रंट फुट पर खेलने की काबिलियत प्रियंका गांधी में भी है. राहुल तो फ्रंट फुट पर पूरी शिद्दत के साथ खेल ही रहे हैं.
और हां, एक बात की चर्चा मैं जरूर करना चाहूंगा जिसे विपक्ष बहुत तूल दे रहा है. प्रियंका गांधी को महासचिव बनाए जाने के बाद विपक्षी पार्टियां वंशवाद का घिसा-पिटा नारा बुलंद कर रही हैं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या फिर सोनिया गांधी या राहुल गांधी ने अपनी योग्यता के बल पर इस देश का प्रेम पाया है. यदि कोई लोभ होता तो क्या सोनिया गांधी प्रधानमंत्री का पद ठुकरा देतीं?
प्रियंका गांधी भी अपनी योग्यता के बल पर ही टिकेंगी. और क्या विपक्षी पार्टियों में एक ही परिवार के लोग सक्रिय नहीं हैं? हिंदुस्तान ही नहीं, अमेरिका में भी ऐसा होता रहा है. राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी के भाई रॉबर्ट और टेड कैनेडी सीनेटर थे. कैनेडी परिवार के और भी कई लोग राजनीति में थे. बुश परिवार के दो लोग राष्ट्रपति बने तो क्या इसे वंशवाद कहेंगे? बिल क्लिंटन और हिलेरी क्लिंटन का उदाहरण क्या वंशवाद है? इस तरह के आरोपों को ओछी राजनीति के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता.