ललित गर्ग का ब्लॉगः बालिकाओं की घटती संख्या
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: February 9, 2019 04:24 PM2019-02-09T16:24:44+5:302019-02-09T16:24:44+5:30
देश में स्त्नी-पुरुष अनुपात को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है. अब तक इस मसले पर अमूमन उत्तर भारत के राज्यों को कठघरे में खड़ा पाया जाता रहा है.
देश में लड़कों की तुलना में लड़कियों की घटती संख्या के आंकड़े चौंकाते ही नहीं, चिंतित भी करते हैं. हालत यह है कि आंध्र प्रदेश में 2016 में प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले महज आठ सौ छह लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया. यह आंकड़ा सबसे निम्न स्तर पर मौजूद राजस्थान के बराबर है. तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे राज्यों में भी तस्वीर बहुत बेहतर नहीं है.
देश में स्त्नी-पुरुष अनुपात को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है. अब तक इस मसले पर अमूमन उत्तर भारत के राज्यों को कठघरे में खड़ा पाया जाता रहा है. दक्षिण भारत के राज्यों में स्त्नी-पुरु ष अनुपात का आंकड़ा काफी अच्छी स्थिति में रहा है. पर एक नए आंकड़े के मुताबिक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में उभरी तस्वीर चिंताजनक है. देश में 6 साल तक के बच्चों में लड़के-लड़कियों का अनुपात सबसे बुरी हालत में है.
जनगणना महापंजीयक कार्यालय की ओर से जारी 2016 के नागरिक पंजीकरण के मुताबिक पिछले कुछ वर्षो के दौरान इन राज्यों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है. इस बढ़ते असंतुलन को दूर करने के लिए ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसे अभियान चलाए गए हैं. लेकिन इसके बावजूद लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या में संतोषजनक संतुलन नहीं बन पा रहा है.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश में बढ़ रही इस असमानता पर गहरी चिंता जताई है. इस पर आधारित खबरों को गंभीरता से लेते हुए आयोग ने केंद्रीय महिला और बाल कल्याण विभाग के सचिव और सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को कारण बताओ नोटिस जारी किया है. आयोग का यह सवाल सही है कि अगर दक्षिण के विकसित राज्यों में भी स्त्रियों की तादाद में तेजी से कमी आ रही है तो फिर महिलाओं के कल्याण के लिए जारी योजनाओं पर अमल की क्या स्थिति है? क्यों नहीं ये योजनाएं प्रभावी होकर मनुष्य की सोच को बदल पा रही हैं?