विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः समाज व्यवस्था में व्यापक बदलाव जरूरी

By विश्वनाथ सचदेव | Published: March 1, 2019 07:44 AM2019-03-01T07:44:50+5:302019-03-01T07:44:50+5:30

कुंभ के मेले में काम करने वाले ये सारे कर्मचारी ठेके पर काम कर रहे हैं. इनका यह काम भी तब तक है, जबतक यह मेला चल रहा है. फिर ये बेकार हो जाएंगे. फिर रोज सबेरे किसी नए काम की तलाश होगी. इन कर्मचारियों, जिनमें से नब्बे प्रतिशत से अधिक दलित हैं, की समस्या के तार उस व्यवस्था से भी जुड़े हैं जो भारतीय समाज के चेहरे पर एक काले धब्बे की तरह है. 

kumbh 2019: narendra modi massive changes in society | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः समाज व्यवस्था में व्यापक बदलाव जरूरी

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः समाज व्यवस्था में व्यापक बदलाव जरूरी

हाल ही में जब हमारे प्रधानमंत्री कुंभ-स्नान के लिए प्रयागराज गए थे तो उन्होंने वहां उन सफाई कर्मचारियों का अभिनंदन किया था जिन्होंने विश्व के इस सबसे बड़े समागम में सफाई-व्यवस्था की जिम्मेदारी निभायी थी. यही नहीं, प्रधानमंत्री ने सफाई के काम में लगे पांच व्यक्तियों  के पैर धोकर उनके प्रति राष्ट्र की कृतज्ञता ज्ञापित की थी. यह सब देख-सुनकर अच्छा लगना स्वाभाविक है. पर जब इन्हीं सफाई-कर्मचारियों में से एक टी.वी. पर यह सवाल पूछता दिखता है कि कुंभ के मेले के बाद हमारा क्या होगा, तो पैर पखारने के इस प्रदर्शन पर भी एक सवालिया निशान लग जाता है. लगता है, कहीं हमारे नेता इस तरह के प्रदर्शन राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ही तो नहीं करते? 

कुंभ के मेले में काम करने वाले ये सारे कर्मचारी ठेके पर काम कर रहे हैं. इनका यह काम भी तब तक है, जबतक यह मेला चल रहा है. फिर ये बेकार हो जाएंगे. फिर रोज सबेरे किसी नए काम की तलाश होगी. इन कर्मचारियों, जिनमें से नब्बे प्रतिशत से अधिक दलित हैं, की समस्या के तार उस व्यवस्था से भी जुड़े हैं जो भारतीय समाज के चेहरे पर एक काले धब्बे की तरह है. 

यह सही है कि पिछले 72 सालों में, यानी स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद, देश में जाति-व्यवस्था के कलंक को मिटाने के लिए काफी काम हुआ है, लेकिन यह काफी भी कितना नाकाफी है, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है. अभी हमारे गांवों में इन दलितों के लिए जगह गांव के किनारों पर ही है. अब भी, सारे दिखावों के बावजूद इनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार के उदाहरण आए दिन दिख जाते हैं. कहीं इन दलितों को घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने से रोका जाता है और कहीं कोई नाई इनके बाल काटने से इंकार कर देता है. छुआछूत से अब भी मुक्त नहीं हो पाये हैं हम. कुछ अर्सा पहले ही शायद मध्य प्रदेश में एक तहसीलदार ने अपने दफ्तर की एक कुर्सी इसलिए धुलवायी थी कि उस पर एक दलित सरपंच आकर बैठी थी. 

इसके साथ ही सवाल यह भी उठता है कि हमारी इस समाज-व्यवस्था में अपेक्षित बदलाव कब आएगा? यह एक सच्चाई है कि आज भी सफाई के काम में लगे, लगभग सभी लोग, उसी दलित वर्ग से आते हैं जिसे हमारी समाज-व्यवस्था में सबसे आखिरी पायदान पर स्थान मिला हुआ है. सफाई यदि सिर्फ रोजगार है तो ऐसा क्यों है कि इस रोजगार को दलितों तक ही सीमित कर दिया गया है? क्यों दलित ही इस काम में लगे हुए दिखते हैं? 

इस सीधे-से सवाल का सीधा-सा उत्तर यह है कि दलितों के पैर धोने जैसी बातों का निहितार्थ उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार लाना ही नहीं होता. हमारा प्रधानमंत्री सफाई कर्मचारियों के पैर धोकर भी जन-समर्थन जुटाने का वही उद्देश्य प्राप्त करना चाहता है, जो उद्देश्य दलितों के घरों में जाकर खाना खाने का होता है. देश भूला नहीं है कि कभी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने दलित की झोपड़ी में रात गुजारी थी और इसी तरह कभी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी दलित के घर में खाना खाया था. ये नेता अपने ऐसे कामों का कुछ भी अर्थ मानते-बताते रहें, आम नागरिक की दृष्टि में ये काम कुल मिलाकर नाटक ही हैं जो राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थो के लिए करते रहते हैं.  

सफाई कर्मचारी संगठन के दावे स्वीकार किए जाएं तो देश की राजधानी दिल्ली से जुड़े गाजियाबाद में आज भी सिर पर मैला ढोने की यह प्रथा जारी है. इसी तरह का एक उदाहरण यह भी है कि सन 2017 में हर पांच दिन में कम से कम एक कर्मचारी देश में सीवेज की सफाई करते हुए मरता है- और यह मरने वाला भी वही दलित होता है जिसे सदियों से इस काम के लिए शापित माना गया है. छब्बीस साल हो चुके, जब देश में मैला ढोने के खिलाफ कानून बना था. पर मैला ढोने की मजबूरी आजतक बनी हुई है. 1993 का वह कानून आज भी है, पर लागू कितना हो रहा है, कोई नहीं बताता. सरकारी दावों के अनुसार सन 2014 उच्चतम न्यायालय ने मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने का निर्देश दिया था. प्रथा अब भी जिंदा है. 

सच बात तो यह है कि सिर्फ कानून बनाने से काम नहीं होता. काम क्रियान्वयन से होता है और सफाई और दलितों के इस समीकरण में तो उस बीमार सोच को भी बदलने की जरूरत है जो सदियों से हमारे समाज को बीमार बनाए हुए है. यह काम प्रतीकों से नहीं हो सकता. 
किसी दलित के पैर धोकर या उसकी झोपड़ी में एक रात गुजारकर या फिर किसी के घर में खाना खाकर अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति की कोशिश तो की जा सकती है, पर स्थिति और सोच में बदलाव तभी आएगा जब ऐसी स्थितियां पैदा की जाएं जिनमें किसी दलित को मैला ढोने की विवशता का शिकार न होना पड़े. 

हमारी सरकारें सामाजिक सोच को बदलने के लिए कानून तो बना देती हैं, पर वे वैकल्पिक व्यवस्था नहीं करतीं जो स्थितियां बदले. हमारे राजनीतिक नेतृत्व को यह बात समझनी होगी कि समाज में बदलाव जुमलों या नाटकों से नहीं आता, उसके लिए ठोस योजनाओं के ईमानदार क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है. हमारी राजनीति में यह ईमानदारी कब दिखेगी?  
 

Web Title: kumbh 2019: narendra modi massive changes in society

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