केवल दैहिक विमर्श नहीं था कृष्णा सोबती का

By विमल कुमार | Published: February 18, 2021 11:36 AM2021-02-18T11:36:30+5:302021-02-18T11:48:11+5:30

भारतीय भाषा की अप्रतिम लेखिका कृष्णा सोबती आज जीवित होतीं तो 96 वर्ष की होतीं। दो वर्ष पूर्व उनका निधन हुआ था। ज्ञानपीठ पुरस्कार से विभूषित कृष्णा जी ने करीब सत्तर साल लेखन किया। आज पढ़ते हैं हिंदी के वरिष्ठ कवि पत्रकार विमल कुमार का यह लेख जो कृष्णा जी के स्त्री विमर्श को नई दृष्टि से देखता है।

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कृष्णा सोबती का उपन्यास जिंदगीनामा 1952 में लिखा गया था लेकिन 1979 में प्रकाशित हो सका।

"स्त्री लेखकों के लिए यह एक रचनात्मक युग का आरंभ है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए उन्हें कितनी सेक्सुअलिटी यहां तक की कितनी पोर्नोग्राफी भी जरूरी लगती है, इसकी तलाश और इसका फैसला उन्हें स्वयं करने दें। अरसे से सेक्सुअल पॉलिटिक्स की सांकलों से जकड़े रहने के बाद जब वह आजादी का क ख ही जान रही हैं ,ऐसे बिंदु पर उन्हें पुरुषों से अलग कोई नैतिक नियम वाली क्यों दी जाए? औरत को हमेशा से पुरुषों ने ही देखा है और पुरुष ने ही उसे अपने नजरिए से चित्रित किया है। अब वह अपने खुद के और नए नजरिए से अपने आप को भी देख रही हैं और पुरुष को भी देख रही हैं। जिस तरह पुरुष ने स्त्री की नग्नता को देखा उसका महिमा गान किया उसका अन्वेषण और उसका दोहन किया, क्यों एक स्त्री पुरुष आकार को व्यक्तिगत और लेखकीय तौर पर उसी तरह नहीं देख सकती? यह दोहरा मापदंड क्यों?"

 "..... फिर अश्लील और अश्लीलता की परिभाषा क्या होगी और अश्लीलता को सिर्फ सेक्स से ही किसलिए जोड़ा जाए। वल्गर और एरोटिक के फर्क को जाने के लिए सिर्फ एक पीढ़ी की शिक्षा और क्षमता काफी नहीं। इस मसले का संबंध आर्थिक बेहतरी से भी है गरीबी और आधी शिक्षा में वल्गर और एरोटिक का फर्क कर पाना मुश्किल है। सिर्फ अभिजात तबका ही अश्लील हुए बगैर अपनी कामना और यौनेच्छा पर बात कर सकता है ।"

('शब्द निरंतर' पत्रिका के कृष्णा सोबती अंक में कृष्णा जी के छपे इंटरव्यू का एक अंश )  

कृष्णा जी के इस इंटरव्यू में उनके इन विचारों से आप स्त्री विमर्श को लेकर उनकी राय जान सकते हैं। कृष्ण जी का यह विमर्श महादेवी के स्त्री विमर्श से आगे का पड़ाव हैं। हिंदी में पहली बार किसी स्त्री लेखक ने इतने बेबाक और सबसे तरीके से अपनी बात कही । कृष्ण जी खुद को लेखिका नहीं बल्कि लेखक ही मानती थीं क्योंकि वह इस तरह के लैंगिक श्रेणी के पक्ष में नहीं थी। कृष्णा जी के स्त्री विमर्श को उनकी रचनाओं और विचारों में जान ने से पहले उनके लेखन और व्यक्तिव के बारे में थोड़ा जानना आवश्यक होगा और उसकी रौशनी में उनके विमर्श को पहचाना जा सकता है। आखिर कृष्णा जी हिंदी साहित्य और समाज में किस तरह का प्रतीक थी और उनका संदेश क्या था। उनकी चिंताएं और सरोकार क्या थे?

आज कृष्णा सोबती की 96वीं जयंती है। दो वर्ष पूर्व ही उनका निधन हुआ था। वह हिंदी के अप्रतिम कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु से पांच वर्ष छोटी थी पर दोनो का लेखन एक ही समय शुरू होता है। रेणु जी की पहली कहानी बट बाबा 1944 की कहानी है जबकि कृष्णा जी की पहली कहानी "लामा" भी उसी साल छपी थी। रेणुजी का पहला उपन्यास मैला आंचल 1954 में छपा जबकि कृष्णा जी का उपन्यास जिंदगीनामा भी 1952 में लिखा गया पर कृष्णा जी ने प्रकाशक द्वारा उसकी भाषा में किए गए परिवर्तनों से उसे तब नहीं छापा । वह उपन्यास 1979 में छपा और उस पर उन्हें 1980 साहित्य अकादमी अवार्ड मिला जिसे कुछ दशक बाद उन्होंने असहिष्णुता के मुद्दे पर लौटा दिया।

कृष्णा सोबती की पहली रचना

कृष्णा जी ने हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान और व्यास सम्मान भी लौटा दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने पद्मभूषण लेने से भी मना कर दिया था जिसे लेने के लिए लोग लॉबिंग करते रहते हैं और तरसते रहते हैं। उनका यह उपन्यास भी अपनी भाषा और शिल्प में मैला आंचल की तरह अनोखा और विशिष्ट था। दरअसल रेणु ने उत्तर बिहार के अंचल की गाथा लिखी तो कृष्णा जी ने पंजाब के अंचल की गाथा लिखी लेकिन कृष्णा जी को आंचलिक लेखक के रूप में विज्ञापित नही किया गया जबकि रेणुजी की चर्चा एक आंचलिक लेखक रूप में होती रही। कृष्णा जी पर आंचलिक लेखक होने का ठप्पा रेणुजी की तरह नहीं लगा। यद्यपि उनका लेखन एक अंचल विशेष का एक जीता जागता संदेश है। आज जब रेणुजी की जन्मशती मनाई जा रही है तो कृष्णा जी की याद आना स्वाभाविक है।चार साल बाद उनकी भी जन्मशती पड़ेगी ।

रेणुजी का पहला कहानी संग्रह ठुमरी 1959 में छपा था जिसकी कहानियां 1950 के बाद लिखी गईं थी। तो कृष्णा जी की चर्चित कहानी सिक्का बदल गया 1948 की कहानी है जिसे अज्ञेय ने प्रतीक में छापा था। नई कहानी के दौर में उनकी कहानी बादलों के घेरे में छपी जिसे भैरव प्रसाद गुप्त ने प्रकाशित किया था ।इस तरह देखा जाए तो वह रेणुजी की समकालीन हैं। रेणुजी की तरह सत्ता के विरोध में निरंतर आवाज उठाने वाली और किसी तरह का समझौता नहीं करने वाली। अलबत्ता वह अपने साहस और स्वाभिमान में निराला की तरह हैं। फर्क इतना है कि निराला ने घोर गरीबी में अपना स्वाभिमान बचाए रखा और उसी मुफलिसी में अपनी दानवीरता को भी सुरक्षित रखा। वह प्रकाशकों-संपादकों के आगे नहीं झुकती हैं।

कृष्णा सोबती का मुकदमा

अमृता प्रीतम के हरिदत्त का जिंदगी नामा किताब आने पर उनके खिलाफ बीस साल तक मुकदमा लड़ती रही और इस लड़ाई में उन्हें अपने तीन मकान तक बेचने पड़े। उनका तर्क था कि जिंदगी नामा जब उनका उपन्यास है तब वह इस नाम को हरिदत्त के साथ कैसे जोड़ सकती हैं। दुनिया में इस तरह के मिलते जुलते नाम को लेकर कितने मुकदमे चले यह तो नहीं मालूम लेकिन अपने देश में ऐसा मुकदमा पहली बार लड़ा गया। यह अलग बात है कि वह यह मुकदमा हार गईं क्योंकि बाबर नामां से लेकर शाहनामा शब्द के उदाहरण पहले से हमारे साहित्य में मौजूद थे।लेकिन उनकी इस मुकदमेबाजी के कारण अमृता प्रीतम के प्रकाशकों ने उनकी हरिदत्त का जिंदगीनामा बाजार से वापस ले ली। इस तरह कृष्णा जी कानूनी रूप से हारने के बाद वह नैतिक रूप से अपनी लड़ाई में विजयी रहीं।

अब कृष्णा जी की जीवनी गिरधर राठी ने लिख दी है। उसमे इस प्रकरण को विस्तार से जाना जा सकता है। कृष्णा जी हिंदी की पहली लेखक हैं जिनके निधन के दो वर्ष बाद ही उनकी जीवनी आ गई अन्यथा प्रेमचंद और निराला की जीवनियां उनके निधन के कई वर्ष बाद आईं। रेणुजी की तरह कृष्णा जी की लोकप्रियता भी धीरे धीरे और बढ़ती जा रही है। उसका एक कारण है कि उनके लेखन और व्यक्तिव में कोई फर्क नहीं है। उन्होंने उपरोक्त इंटरव्यू में कहा है" मेरा व्यक्तित्व और मेरा लेखन कभी अलग नहीं हुए। न श्रेणियों में न खानों में। वे साथ रहते हैं और एक समग्र इकाई के रूप में काम करते हैं। जीना और लिखना मेरे लिए देह और आत्मा की तरह सहजीवी रहे हैं। एक दूसरे के साथ एक दूसरे के भीतर।"

कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी

हिंदी के बहुतेरे लेखकों के जीवन और लेखन में एक फर्क अंतर और पाखंड दिखाई देता है लेकिन कृष्णा जी के जीवन और लेखन में कोई पार्थक्य नहीं हैं। कृष्णा जी की पहली कृति चन्ना है लेकिन अब तक हिंदी समाज "डार से बिछड़ी" को ही उनकी पहली कृति मानता और समझता रहा लेकिन चन्ना के प्रकाशन की कहानी सामने आने के बाद लोगों को पता चल गया कि यह उनकी पहली कृति है जो संयोग से इस अर्थ में उनकी अंतिम कृति भी है क्योंकि कृष्णा जी के निधन के कुछ दिन पूर्व ही प्रकाशित हो कर सामने आई लेकिन कृष्णा जी को ख्याति मित्रो मरजानी से मिली जो 1966 में सारिका में छपी थी।  

उस इंटरव्यू में कृष्णा जी ने यह भी कहा था "मित्रो में के साथ उठे शोर-शराबे की वजह इसका बोल ट्रीटमेंट था। सारिका में , जिसके संपादक उस समय चंद्रगुप्त विद्यालंकार थे, इसकी पहली दो किस्ते छापने के बाद इलाहाबाद से एक आंदोलन उठा जिसके मुताबिक यह कहानी अश्लील थी। नतीजा प्रकाशन रुक गया बाद में जब यह एक उपन्यास के रूप में राजकमल प्रकाशन से छप कर आई तो उसका प्रभाव सारिका में छपी उन दो किस्तों से बिल्कुल ही अलग था। इसका एक अलग पाठक वर्ग बना। संयुक्त परिवार की गिरहों में इच्छा की मानव सुलभ हकीकत को समझा गया और एक औरत के रूप में मित्रो जो दुनिया के प्राचीनतम पेशे से जुड़े परिवार से आती थी, अपनी भावनाओं को ऐसी प्राकृतिक सरलता के साथ व्यक्त कर पा रही थी कि पाठक उसकी शरारती ईमानदारी से अभिभूत हो गए। आज इस लघु उपन्यास को लगभग एक क्लासिक का दर्जा मिल चुका है।

 कृष्णा सोबती, महादेवी और मीरा

कृष्णा जी ने इंटरव्यू में आगे कहा है "मंच पर भी मित्रो मरजानी को भारी सफलता मिली और वे पंक्तियां जिन्हें बोल्ड करार दिया गया था दर्शकों को यह संदेश पहुंचा पाई कि एक बहू द्वारा अपनी यौन इच्छा को व्यक्त करना अब कोई टैबू नहीं रह गया।" कृष्णा जी आगे कहती हैं औरत का शरीर हमेशा ही पुरुष के लिए सेक्स सिंबल रहा है मित्रों ने एक कदम आगे बढ़कर अपने शरीर की मालकिन होकर अपनी पहचान अर्जित की और इस छवि को बदला । उन्होंने उसी इंटरव्यू में आगे कहां है कि "वह क्षण जब मित्रो अपनी छातियों खोल कर उनकी तारीफ में बोलती हैं ,वह क्षण भारतीय स्त्री के जीवन का एक ऐतिहासिक क्षण था। अभी तक सिर्फ पुरुष ही औरत के शरीर को देखता था। अब स्त्री खुद अपने शरीर और उसके सौंदर्य को गौरव के साथ देख रही थी।"

कृष्णा जी का कहना सही है। अब तक हम कालिदास जयदेव और विद्यापति की नजरों से स्त्री के सौंदर्य और देह को देख रहे थे लेकिन कृष्णा जी ने इसे उलट पलट दिया। उन्होंने हिंदी साहित्य में स्त्री दृष्टि को स्थापित किया। महादेवी जी ने स्त्री के शरीर के प्रश्न को छुआ नहीं था। उनके भीतर भारतीय नारी की एक पारंपरिक चरित्र को बदलते हुए उसमे अपने लिए स्पेस खोजना था लेकिन कृष्णा जी ने उस छवि को झटके से तोड़ दिया। हिंदी में इतना साहसिक लेखन तो आज तक किसी ने नहीं किया। कृष्णा जी इस अर्थ में मीरा और महादेवी से आगे की लेखिका हैं।

कृष्णा सोबती और पितृसत्ता

अगर भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक सोच बदली तो कृष्णा जी और वरेण्य मानी जाएंगी। कृष्णा जी केवल मित्रो की देह कामना को ही स्त्री विमर्श तक सीमित नहीं करती बल्कि सूरजमुखी अंधेरे की रत्ती में भी उनके स्त्री विमर्श को देखा जा सकता है ।

उस इंटरव्यू में कृष्णा जी ने खुद कहा है "सूरजमुखी अंधेरे की रत्ती मित्रों से एकदम उलट है। वह एक शिक्षित युवती है जिसके साथ बचपन में बलात्कार हुआ और जो अब अपने एकाकी अस्तित्व के लिए तन्हा खड़ी है। बचपन के मानसिक आघात के चलते उसने शारीरिक ऊष्मा और प्रेम के प्रति एक ठंडापन अपना लिया है। वह अपने संपर्कों में आने वाले हर पुरुष को संदेह से देखती है। उससे डरती है और सोचती है कि वह कोई और होगा जिससे उसका मन मिलेगा यह न जानते हुए कि शारीरिक अभिव्यक्ति के प्रति स्वयं उसके मन में कितना तिरस्कार है। अपनी पीड़ा में वह निराश होती चली जाती है। फिर उसे दिवाकर मिलता है , एक शादीशुदा आदमी जो स्त्री की खूबसूरती और उसके एकाकीपन के सम्मोहन में पड़ जाता है।

दिवाकर जिस तरह रत्ती की आंतरिकता तक पहुंचता है, उससे उससे कुछ भरोसा होता है और वे शारीरिक प्रेम तक पहुंचते हैं लेकिन रत्ती दिवाकर को अपनी बीवी को तलाक देकर उसके साथ रहने के प्रस्ताव को ठुकरा देती है । एक पारदर्शी क्षण में वह अपने खोए वक्त को देख पाती है जो अब दिवाकर और उसकी पत्नी के लिए भी खो सकता है । दिवाकर को वह" ना " कहती है । वह अपने शरीर की पवित्रता उसकी संपूर्णता को वापस पा चुकी है और अब वह अपनी या दिवाकर की पत्नी की संपूर्णता का अवमूल्यन नहीं करना चाहती है।"

कृष्णा सोबती के स्त्री विमर्श की समग्र तस्वीर

इस तरह मित्रो और रत्ती को मिलाकर देखा जाए तो कृष्णा जी के स्त्री विमर्श की एक समग्र तस्वीर बनती है लेकिन हिंदी में मित्रो की ख्याति अधिक मिली और रत्ती की तरफ ध्यान कम गया। ये दोनों कृतियां कृष्णा जी की हैं तो उनके लेखन को इन दोनो पात्रों के बरक्स देखा जाना चाहिए। तभी कृष्णा जी को समग्रता में पहचाना जा सकेगा। इसलिए जो लोग कृष्णा सोबती को केवल मित्रो में रिड्यूस करते हैं उन्हें रत्ती का भी ख्याल रखना चाहिए और रति के साथ कृष्णा जी को जोड़कर देखा जाना चाहिए इसलिए कृष्णा जी के व्यक्तित्व के मूल्यांकन करते समय इस तरह के सरलीकरण से बचा जा सकेगा।

कृष्णा जी ने जब लिखना शुरू किया तो उस समय रेणुजी के अलावा अमरकांत, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, कमलेश्वर आदि भी लिख रहे थे लेकिन स्त्रियों को एक नए नजरिए से देखनेवाला लेखक कोई नहीं था। इस नई दृष्टि ने ही कृष्णा जी को" कृष्णा सोबती" बनाया। वह केवल भाषा और शिल्प के कारण कृष्णा सोबती नहीं बनी, इस बात को दर्ज किया जाना चाहिए। कृष्णा जी उस इंटरव्यू में यही सूत्र देती हैं। 

Web Title: krishna sobati birth anniversary krishna sobati on feminism female sexuality gender justice male gaze

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