कृष्णप्रताप सिंह का ब्लॉग: हिंदी पत्रकारिता साहित्य से हो रही है दूर
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: May 30, 2023 10:49 AM2023-05-30T10:49:43+5:302023-05-30T10:51:53+5:30
विद्वानों की मानें तो पश्चिम में पत्रकारिता जरूर आधुनिक विधा के रूप में सामने आई, लेकिन हिंदी में शुरू से ही मसिजीविता उसका अभिन्न अंग रही। इसलिए एक वक्त हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के प्रायः सारे संपादक या तो साहित्यकार हुआ करते थे या फिर हिंदी भाषा के बड़े ज्ञाता।

(प्रतीकात्मक तस्वीर)
नई दिल्ली: हिंदी की पत्रकारिता और उसके साहित्य का संबंध इतना अन्योन्याश्रित रहा है कि पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित संपादक को सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारने में संकोच नहीं हुआ कि इस पत्रकारिता के पास तोप से लड़ने का हौसला साहित्य की मार्फत ही आया। तब, जब गोरी सत्ता के एक के बाद एक क्रूरता की सारी हदें पार करती जाने के दौर में मशहूर उर्दू साहित्यकार अकबर इलाहाबादी ने लिखा-‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’
विद्वानों की मानें तो पश्चिम में पत्रकारिता जरूर आधुनिक विधा के रूप में सामने आई, लेकिन हिंदी में शुरू से ही मसिजीविता उसका अभिन्न अंग रही। इसलिए एक वक्त हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के प्रायः सारे संपादक या तो साहित्यकार हुआ करते थे या फिर हिंदी भाषा के बड़े ज्ञाता।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज, मनोहर श्याम जोशी, धर्मवीर भारती तक साहित्य और पत्रकारिता के बीच आवाजाही की एक लंबी श्रृंखला रही है। लेकिन आज न सिर्फ साहित्य व पत्रकारिता के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है बल्कि उन्हें एक दूजे का विलोम माना जाने लगा है।
क्या आश्चर्य कि हिंदी पत्रकारिता-प्रिंट, इलेक्ट्रानिक व डिजिटल सब-में साहित्य की जगहें सिकुड़ती जा रही हैं। दूसरी ओर साहित्य में तो पत्रकारिता जैसे हो ही नहीं रही। कई पत्रकार निजी बातचीत में साहित्यकारों को कुछ इस तरह ‘साहित्यकार है’ कहते हैं, जैसे उसका साहित्यकार होना कोई विडंबना हो। इसी तरह साहित्यकारों को किसी सामग्री को सतही बताना होता है तो कहते हैं कि वह ‘पत्रकारीय’ है। वे ‘पत्रकारीय लेखन’ को दोयम दर्जे का काम मानते हैं, सो अलग।
सभी जानते हैं कि इससे हिंदी साहित्य और पत्रकारिता दोनों का नुकसान हो रहा है, लेकिन इसे लेकर कोई मुंह नहीं खोलता कि इससे ‘आप आप ही’ वाली जिस ‘संस्कृति’ का ‘निर्माण’ हो रहा है, उसका लाभार्थी कौन है? वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी के इस कथन की मार्फत जवाब तक पहुंचा जा सकता है कि साहित्य अकेला और निहत्था हो गया है। उसे बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों से समर्थन और सहचारिता नहीं मिल पा रहे हैं। निस्संदेह, साहित्य के बगैर पत्रकारिता निहत्थी भले न हुई हो, अकेली तो वह भी हो ही गई है।