कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: विपक्ष के लिए बड़ा संदेश है ‘आप’ की जीत
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 13, 2020 08:47 AM2020-02-13T08:47:32+5:302020-02-13T08:47:32+5:30
निश्चित रूप से केजरीवाल इस श्रेय के हकदार हैं कि जब देश का राष्ट्रीय विपक्ष सांप्रदायिक घृणा की राजनीति से लड़ रहा है तब देश के हृदयस्थल दिल्ली में अपनी सरकार के काम के आधार पर वोट मांगकर उन्होंने देशवासियों को नई शैली की राजनीति से परिचय कराया है. सवाल है कि क्या यह विपक्ष इससे किंचित भी प्रेरणा लेकर अपने काम पर ज्यादा ध्यान दे पाएगा? अगर नहीं तो उसके सामने विकल्प बनने का दूसरा कौन-सा रास्ता है.
लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली तक जिन भी राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, मतदाताओं ने एक जैसा रुख प्रदर्शित किया है और दिल्ली में तो उन्होंने न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की रणनीति नहीं फलने दी है बल्कि उन्होंने केन्द्र सरकार द्वारा आखिरी क्षणों में उन्हें लुभाने के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट के ऐलान के पीछे की राजनीति का शिकार होना भी गंवारा नहीं किया और झारखंड के बाद दिल्ली को दूसरा ऐसा राज्य बना दिया है, जहां अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद चुनाव हुए और भाजपा भव्य राममंदिर निर्माण का श्रेय लेने की कोशिश में गच्चा खा गई.
भाजपा जिन अरविंद केजरीवाल के हनुमान चालीसा पढ़ने को उनकी असहायता का प्रतीक बता रही थी, उन्होंने ही उसकी हिंदुत्व का पुरोधा होने की सारी बदगुमानियों को धूल चटा दी. भाजपा का दुर्भाग्य कि वह इसका ठीकरा अपने संगठन की कमजोरी या स्थानीय नेताओं व मुद्दों पर भी नहीं फोड़ सकती. इस चुनाव में स्थानीय मुद्दों पर तो उसने कभी वोट मांगे ही नहीं हां, भाजपा कह सकती है कि आप की जीत के पीछे उसकी कोई सुविचारित नीति या सिद्धांत नहीं हैं और इसके लिए उसने मतदाताओं को मुफ्त बिजली-पानी व बस यात्रा वगैरह की जो जो लत लगाई है, वही एक दिन आगे बढ़कर उसकी राह रोक देगी. लेकिन जब रोक देगी तब रोक देगी, अभी तो आप इसका जवाब यह कहकर दे रही है कि इस मुफ्त के लिए उसने राज्य के बजट पर कोई बोझ नहीं बढ़ाया है.
अब ‘आप’ और उसके नायकों का इस जीत के नशे में अति महत्वाकांक्षा, अति आत्मविश्वास और आपसी सिर फुटौवल तीनों से बचना बेहतर होगा. वरना भाजपा कभी भी बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की कहावत को चरितार्थ कर सकती है. वैसे भी वह अभी से इस तर्क के सहारे अपनी पराजय को नकार रही है कि उसका मत प्रतिशत तो बढ़ा ही है, सीटों मेंं भी वृद्धि हुई है. अपनी राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी कांगे्रस का खाता न खुलने देने का श्रेय भी वह खुद ही ले रही है.
निश्चित रूप से केजरीवाल इस श्रेय के हकदार हैं कि जब देश का राष्ट्रीय विपक्ष सांप्रदायिक घृणा की राजनीति से लड़ रहा है तब देश के हृदयस्थल दिल्ली में अपनी सरकार के काम के आधार पर वोट मांगकर उन्होंने देशवासियों को नई शैली की राजनीति से परिचय कराया है. सवाल है कि क्या यह विपक्ष इससे किंचित भी प्रेरणा लेकर अपने काम पर ज्यादा ध्यान दे पाएगा? अगर नहीं तो उसके सामने विकल्प बनने का दूसरा कौन-सा रास्ता है. फिलहाल, जवाब के लिए बिहार विधानसभा चुनाव की प्रतीक्षा करनी होगी, जहां इसकी पहली परीक्षा होगी.