ब्लॉग: धर्म को राजनीति का हथियार बनाया जाना उचित नहीं
By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 16, 2022 07:54 PM2022-02-16T19:54:01+5:302022-02-16T19:55:12+5:30
धार्मिक बहुलता हमारी ताकत है, सांस्कृतिक विविधता हमारा गौरव है. धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले इस ताकत और गौरव की अवहेलना ही नहीं कर रहे, उन्हें अपमानित भी कर रहे हैं.
देश के दक्षिणी हिस्से में, विशेषकर कर्नाटक में, हिजाब को लेकर उठा विवाद लगातार सुर्खियों में बना हुआ है. मामला न्यायालय में भी है और आशा है जल्दी ही कोई हल खोजने की दिशा में ठोस कार्रवाई होगी. मुद्दा भले ही कुछ छात्राओं द्वारा हिजाब पहन कर पढ़ने आने की ‘जिद’ से शुरू हुआ हो, पर विवाद के निपटारे के बावजूद इस बात की पूरी आशंका है कि ध्रुवीकरण की राजनीति में लगी ताकतें आग को आसानी से बुझने नहीं देंगी.
यह आशंका गलत सिद्ध हो, देश का हर विवेकशील नागरिक यही चाहेगा, पर देश के अलग-अलग हिस्सों में जिस तरह से धर्म, जाति आदि के नाम पर ध्रुवीकरण की कोशिशें दिखाई देने लगी हैं, वह निश्चित रूप से एक चिंताजनक स्थिति पैदा करने वाली है. ऐसे में देश के धुर उत्तर-पूर्वी क्षेत्र से आई एक छोटी-सी खबर की ओर ध्यान दिया जाना जरूरी लग रहा है.
खबर अरुणाचल प्रदेश से है. वहां के स्कूलों ने छात्रों और अभिभावकों से विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय किया है कि हर सोमवार को विभिन्न जाति-समूहों के विद्यार्थी अपने-अपने वर्ग-कबीले की परंपरागत वेशभूषा में स्कूल आएंगे. इस निर्णय को आदेश समझने की बात भी स्पष्ट रूप से कही गई है. यह भी रेखांकित किया गया है कि अरुणाचल प्रदेश की जनता ने इस निर्णय का स्वागत किया है.
यूं तो कर्नाटक में हिजाब और अरुणाचल में परंपरागत वेशभूषा के इन मामलों में स्पष्ट रूप से कोई रिश्ता दिखाई नहीं देता, पर रिश्ता है. हिजाब के पक्षधर इसे वैयक्तिक आजादी और धार्मिक परंपरा से जोड़ कर देख रहे हैं. पारंपरिक ड्रेस को महत्व देने वाले इसे क्षेत्र-विशेष की संस्कृति से जोड़कर देखते हैं.
लगातार बदलती और छोटी होती दुनिया में भाषा और भूषा को लेकर एक-दूसरे से प्रभावित होने के उदाहरण अब खोजने नहीं पड़ते. विभिन्न क्षेत्रों, धर्मो और जातियों के लोग जाने-अनजाने एक-दूसरे से कुछ ले रहे हैं, एक-दूसरे को कुछ दे रहे हैं. देखा जाए तो लेन-देन की यह प्रक्रिया हमें समृद्ध ही बनाती है. पर जब कभी धर्म के नाम पर और कभी-जाति के नाम पर लेन-देन की इस प्रक्रिया में रोड़े अटकाए जाते हैं तो विवाद गहराने लगते हैं.
हिजाब पहनने, न पहनने को लेकर कर्नाटक में उठे विवाद को जिस तरह धर्म और राजनीति के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, वह न केवल अनावश्यक है, बल्कि खतरनाक भी है. जिस तरह हिजाब के मुकाबले में भगवा गमछे और साफे को खड़ा किया जा रहा है, उसे प्रक्रिया की प्रतिक्रि या मात्र के रूप में देखना दूसरों को ही नहीं, अपने आप को भी भरमाना है.
धर्म को राजनीति का हथियार बनाने की यह प्रक्रिया नई शुरू नहीं हुई है. आजादी पाने के तत्काल बाद से ही इस तरह के स्वर उठने लगे थे, पर पिछले कुछ सालों में यह प्रवृत्ति खतरनाक तरीके से बढ़ती दिख रही है. आजादी पाने के बाद हमने अपने देश को पंथ-निरपेक्ष बनाए रखना जरूरी समझा.
दुनिया के हर धर्म को मानने वाले व्यक्ति हमारे देश में हैं- और सब सदियों से साथ-साथ रह रहे हैं, पनप रहे हैं. हमारे देश का विभाजन भले ही धार्मिक आधार पर हुआ हो, पर तब हमारे नेताओं ने देश को किसी धर्म-विशेष से जोड़ने से इनकार करके सारी दुनिया को एक मानवीय संदेश दिया था.
यूं तो हमारा देश विभिन्नताओं का एक महकता हुआ गुलदस्ता है, पर धार्मिक सौहाद्र्र का जो उदाहरण हमारे संविधान-निर्माताओं ने प्रस्तुत किया, वह अपने आप में अनूठा है. इस अनूठेपन की रक्षा का दायित्व हर विवेकशील भारतीय पर है. सब धर्म दुनिया को समानता का संदेश देने वाले हैं, और हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हम सब धर्मो का सम्मान करते हैं.
जिस तरह अरु णाचल प्रदेश के स्कूलों में सप्ताह में एक दिन परंपरागत वेशभूषा पहन कर आना अनिवार्य बनाया गया है, वह दिशा देने वाला है. अपनी सांस्कृतिक पहचान के प्रति सबको गर्व होना चाहिए, उस पहचान की रक्षा का दायित्व भी हम सबका है. लेकिन धार्मिक पहचान को लेकर की जाने वाली राजनीति को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
धार्मिक बहुलता हमारी ताकत है, सांस्कृतिक विविधता हमारा गौरव है. धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले इस ताकत और गौरव की अवहेलना ही नहीं कर रहे, उन्हें अपमानित भी कर रहे हैं. राजनेता अपने स्वार्थो से बाज नहीं आएंगे, पर यह दायित्व देश के हर विवेकशील नागरिक का है कि वह राजनेताओं की चाल का शिकार न बने.