उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों के पुरोधा मेरे दादाजी, पद, सामर्थ्य या संपत्ति से कहीं अधिक मूल्यवान स्नेह, सम्मान और विश्वास

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: November 25, 2025 05:32 IST2025-11-25T05:32:07+5:302025-11-25T05:32:07+5:30

जन्म 2 जुलाई 1923 को यवतमाल में कपास का व्यवसाय करने वाले एक समृद्ध परिवार में हुआ था.

Jawaharlalji Darda Babuji my grandfather pioneer excellent human values, love, respect and trust are more valuable than position, power or wealth blog Devendra Darda | उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों के पुरोधा मेरे दादाजी, पद, सामर्थ्य या संपत्ति से कहीं अधिक मूल्यवान स्नेह, सम्मान और विश्वास

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Highlights असाधारण विनम्रता और सरलता वाले लोग भला कितने होते हैं?जबलपुर जेल में 21 महीने कैद रहे, अनेक पत्र-पत्रिकाएं शुरू कीं.संगठन में एक के बाद एक ऊंचे पदों की जिम्मेदारियां निभाते गए.

देवेंद्र दर्डा

जवाहरलालजी दर्डा, बाबूजी, मेरे दादाजी मेरे लिए एक परिपूर्ण मनुष्य का साकार रूप थे. बचपन की धुंधली यादों से लेकर उनके अंतिम क्षणों तक, मैंने उन्हें समय के साथ और अधिक सक्षम, प्रतिष्ठित और प्रभावशाली होते देखा. और, आश्चर्य यह कि बाबूजी जितने ऊंचे होते गए, उतने ही विनम्र और जमीन से जुड़े रहे. इतनी असाधारण विनम्रता और सरलता वाले लोग भला कितने होते हैं?

प्रतिकूलता ने उन्हें गढ़ा

नई पीढ़ी के लोग, जो दादाजी के बारे में कम जानते हैं, उन्हें मैं बताना चाहता हूं कि उनका जन्म 2 जुलाई 1923 को यवतमाल में कपास का व्यवसाय करने वाले एक समृद्ध परिवार में हुआ था. लेकिन समय ने अचानक करवट बदली और मात्र दो वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता को खो दिया. इसके बाद के वर्ष आर्थिक संघर्षों से भरे थे. परिवार की संचित संपत्ति समाप्त हो गई और कमाने वाला कोई युवा सदस्य नहीं था. लेकिन प्रतिकूलता ने ही उन्हें गढ़ा. किशोरावस्था में वह स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए, जबलपुर जेल में 21 महीने कैद रहे, अनेक पत्र-पत्रिकाएं शुरू कीं.

उनके प्रकाशन को ब्रिटिश शासन बार-बार बंद करता रहा और अंततः उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा दिए गए नाम ‘लोकमत’ को पुनर्जीवित किया और इसे महाराष्ट्र की आवाज बना दिया. आगे चलकर वह कांग्रेस से जुड़े और संगठन में एक के बाद एक ऊंचे पदों की जिम्मेदारियां निभाते गए.

दादाजी विभिन्न सरकारों में लगभग 22 वर्षों तक मंत्री रहे और ये तमाम उपलब्धियां उन्होंने एक ही जीवन-काल में अर्जित कीं. इतनी असाधारण जीवन यात्रा के बावजूद, वह हमेशा सहज, सरल, हर किसी के लिए उपलब्ध रहने वाले और अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति बने रहे.

प्यार से ‘पिल्लू’ पुकारते

हम सभी पोते-पोतियों के लिए उनका आगमन सबसे बड़ी खुशी का अवसर होता था. जैसे ही वह घर पहुंचते, हम दौड़कर उनसे लिपट जाते. उनसे चिपककर बैठ जाते. वह हमें प्यार से ‘पिल्लू’पुकारते. उन्होंने अपने पुलिस सुरक्षा दस्ते को यह हिदायत दे रखी थी कि घर में प्रवेश करने से पहले सायरन और लाल बत्ती बंद कर दें, ताकि बच्चों को डर न लगे.

नागपुर के घर की ड्यौढ़ी पर खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा करना मुझे आज भी याद है. उनके आते ही मैं अपनी मां की डांट की शिकायत लेकर उनके पास पहुंच जाता था. वह मेरी हर शरारत को नजरअंदाज करते हुए मेरे पक्ष में खड़े दिखते थे. मुझे कभी निराश नहीं करते. मुस्कुराते हुए, मां को डांटने का नाटक करते, केवल इसलिए कि मैं खुश हो जाऊं.

जरा इस पल का आनंद ले लें...

एक बार वसंतदादा पाटिल और वसंतराव नाईक जैसे महाराष्ट्र के प्रमुख नेता किसी बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा करने के लिए हमारे घर पर आए थे. बैठक चल ही रही थी कि तभी मेरी छोटी बहन पूर्वा, जो उस समय पांच-छह वर्ष की रही होगी, उनके कमरे में पहुंच गई. वह बेझिझक फर्श पर बैठ गई और बड़ी तल्लीनता से अपने पैरों में नेल पॉलिश लगाने लगी.

दादाजी की नजर उस पर पड़ी, उन्होंने बातचीत रोक दी, मुस्कुराए और बोले, “जरा इस पल का आनंद ले लें.” तीनों नेता हंस पड़े और कुछ पलों के लिए राजनीति, औपचारिकता और गंभीरता के बीच एक बच्चे की मासूमियत ने पूरे माहौल में आनंद बिखेर दिया.

बहू नहीं बेटी

बाबूजी अपनी बहुओं के भी उतने ही चहेते थे क्योंकि उन्होंने उन्हें कभी बहू नहीं, हमेशा बेटी की तरह माना. घर में उन्होंने कभी किसी पर कोई नियम नहीं थोपे. बस एक आग्रह अटल रहा, वह यह कि घर में जो आए,उसे भोजन करवाकर ही विदा किया जाए. और, हमारे यहां आगंतुक भी  कम नहीं होते थे.

वह स्वयं ध्यान रखते थे कि कोई जरूरतमंद व्यक्ति खाली हाथ वापस न जाए. यदि किसी के पास किराये के लिए पैसे न हों, तो वह तुरंत कर्मचारियों को निर्देश देते कि उसके लिए बस या ट्रेन के किराये की व्यवस्था की जाए.

महिला सशक्तिकरण के पक्षधर

जब ‘महिला सशक्तिकरण’ शब्द प्रचलन में नहीं था, तब भी बाबूजी उसे जीवन-व्यवहार  में उतार चुके थे. संभवत:, यह संस्कार उन्हें अपनी मां से मिला था जिनकी स्नेहिल छाया में वह पले-बढ़े थे. उन्होंने हमारे परिवार की महिलाओं को स्वावलंबी और कर्मशील बनने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया. वह मेरी दादी से नियमित रूप से सलाह-मशविरा लेते और उनके विचारों को बड़ा महत्व देते थे.

जब मुझे अपने जीवनसाथी का चुनाव करने का समय आया तो मैंने अपने मन की बात सबसे पहले अपने दादाजी से ही कही. उन्होंने जिद की कि मैं तुरंत उसे फोन करके घर बुलाऊं, ताकि वे उससे मिल सकें. रचना उस समय बाहर थीं और जीन्स पहने होने के कारण घर आने से झिझक रही थीं. यह सुनकर दादाजी मुस्कुराए और बहुत सहजता से बोले, “जब मेरी बेटियां जीन्स पहन सकती हैं, तो तुम क्यों नहीं?” वह उस दिन घर आईं और दादाजी से पहली मुलाकात में ही उनकी प्रशंसक बन गईं.

असाधारण राजनेता और प्रबंधक

एक राजनेता और प्रबंधक के रूप में दादाजी वास्तव में असाधारण थे. औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद, उन्होंने इस समय वे सिद्धांत अपनाए जिन्हें आज प्रबंधन संस्थानों में पढ़ाया जाता है. मैंने उन्हें लोकमत समूह के संपादकों और प्रमुख प्रबंधकों के साथ संवाद करते हुए बहुत करीब से देखा है.

बातचीत के दौरान दादाजी सटीक पांच-छह प्रश्न पूछते थे, उन्हीं में उन्हें आवश्यक महत्वपूर्ण जानकारी मिल जाती. उनकी बैठकों का उद्देश्य स्पष्ट होता था और वहां से निकलते समय हर व्यक्ति उत्साहित और ऊर्जा से भरा महसूस करता था. मैंने कभी उन्हें, किसी से भी ऊंची आवाज में बात करते हुए नहीं सुना. तनावपूर्ण परिस्थितियों में भी वह संयत, शांत और गरिमामय बने रहते थे.

सशक्त मूल्य-तंत्र बनाया

उन्होंने एक ऐसा सशक्त मूल्य-तंत्र बनाया जिसने न केवल हमारे परिवार को आकार दिया, बल्कि हमारे कामकाज की संस्कृति को भी. उन्होंने कभी उपदेश नहीं दिया, वह हर दिन बस उन मूल्यों को जीते रहे. उन्होंने हमें सिखाया कि पद, सामर्थ्य या संपत्ति से कहीं अधिक मूल्यवान होते हैं स्नेह, सम्मान और विश्वास.

इसी सीख की बदौलत आज उनके दोनों बेटे आज भी उतने ही करीब हैं जितने बचपन में थे और वही अपनापन पूरे परिवार में स्वाभाविक रूप से बना हुआ है. कामकाज के दौरान वह अपने बेटों को याद दिलाते थे कि यह सिर्फ व्यवसाय नहीं, बल्कि एक विश्वास है. इसके वास्तविक संरक्षक हमारे पाठक हैं और हर समय उस विश्वास का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है.

तीसरी पीढ़ी भी उनके मूल्यों को निभा रही

दादाजी हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि कर्मचारियों का वेतन निर्धारित तिथि पर या उससे पहले दिया जाए, ब्याज या ऋण की कोई भी किश्त एक दिन के लिए भी लंबित न रहे और किसी आपूर्तिकर्ता को अपने भुगतान का तगादा करने के लिए कभी फोन न करना पड़े या कार्यालय के चक्कर न लगाने पड़ें.

मुझे गर्व है कि आज तीसरी पीढ़ी भी इन मूल्यों को उसी दृढ़ता से निभा रही है और लोकमत समूह ने आज तक उनके द्वारा स्थापित मानकों से समझौता नहीं किया. दादाजी का सौंदर्यबोध भी अद्भुत था. उन्हें प्रकृति, स्थापत्य और हर उस कृति से प्रेम था जिसमें सौंदर्य और सौम्यता हो. आज, उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें केवल एक संस्थान के निर्माता के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसी विरासत के रूप में याद करते हैं, जो उत्कृष्ट मूल्यों, मानवता, नेतृत्व क्षमता और प्रेम से समृद्ध है.

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