Jagannath Rath Yatra stampede: लगातार भगदड़ों से हम क्यों नहीं लेते सीख?
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 4, 2025 05:38 IST2025-07-04T05:37:36+5:302025-07-04T05:38:37+5:30
Jagannath Rath Yatra stampede: पुरी में वे सभी भगवान जगन्नाथ के अनुयायी थे, जो नियमित रूप से पुरी आते हैं. विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा शासित इन पूर्वी और दक्षिणी राज्यों की घटनाओं में जो बात समान है,

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अभिलाष खांडेकर
हाल ही में ओडिशा में जगन्नाथ रथयात्रा में मची भगदड़ और इसके परिणामस्वरूप कई श्रद्धालुओं की मृत्यु तथा गंभीर रूप से घायल होने की घटना, अहमदाबाद में आईपीएल 2025 में आरसीबी की जीत के बाद बेंगलुरु में हुई दुर्भाग्यपूर्ण भगदड़ के कुछ ही दिन बाद हुई है. अगर बेंगलुरु में क्रिकेट के दीवाने अपने चहेते विराट कोहली और अन्य खिलाड़ियों की एक झलक पाने के लिए लालायित थे, तो पुरी में वे सभी भगवान जगन्नाथ के अनुयायी थे, जो नियमित रूप से पुरी आते हैं. विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा शासित इन पूर्वी और दक्षिणी राज्यों की घटनाओं में जो बात समान है,
वह है आम लोगों की असामयिक और टाली जा सकने वाली मौतें. बीसीसीआई, जो आरसीबी की जीत के बाद हुई जानलेवा दुर्घटना के लिए अप्रत्यक्ष रूप से भी जिम्मेदार नहीं है, ने भविष्य में क्रिकेट से जुड़ी ऐसी भगदड़ को रोकने के लिए तुरंत एक समिति गठित की. लेकिन ओडिशा में सरकार और अधिकारी हर साल इतनी बड़ी भीड़ के आदी हैं, फिर भी कई लोगों को जान गंवानी पड़ी.
अगर यह सरकार की अक्षम्य उदासीनता नहीं है तो क्या है? कुछ महीने पहले ही उत्तर प्रदेश में कुंभ मेले में ऐसी ही भगदड़ मची थी. लेकिन इससे कोई सबक नहीं लिया गया. जबकि इससे पहले के भी कुंभ मेले में ऐसी ही त्रासदी हुई थी. उत्तर प्रदेश में हुई मौतों की संख्या को सरकार द्वारा दबा दिया गया. कई महीनों बाद भी भारत के लोगों को वास्तविक मौतों का आंकड़ा पता नहीं चल पाया है.
आखिर क्यों? लगभग उसी समय नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कुप्रबंधन और कुंभ यात्रा के लिए उमड़ी भारी भीड़ के कारण मची भगदड़ में कई लोगों की मौत हो गई. रेलवे प्रबंधन और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आगंतुकों के अनुमान और भीड़ के कुशल प्रबंधन के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में लोगों की असामयिक मौतों से देश में हड़बड़ी मच जानी चाहिए थी, किंतु ऐसा नहीं हुआ.
दु:ख की बात यह भी है कि इससे सत्ता के नशे में चूर राजनेताओं की आंखों में कोई आंसू नहीं देखा गया. दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि भारत जैसे अत्यधिक धार्मिक राज्य में नियमित रूप से धार्मिक समागमों में भगदड़ की घटनाएं होती रहती हैं और सरकारें, प्रशासन और पुलिस मूकदर्शक बने रहते हैं, जबकि लोग मर जाते हैं और अपने पीछे शोकाकुल परिवार छोड़ जाते हैं.
सरकार मशीनी तरीके से अनुग्रह राशि दे देती है और उसे लगता है कि उसका कर्तव्य पूरा हो गया! मुझे 2011 की सबरीमाला की घटना याद आती है जिसमें 104 लोग मारे गए, इसके पहले 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में मची भगदड़ में 162 निर्दोष लोगों की जान चली गई थी. उसी वर्ष जोधपुर के चामुंडादेवी मंदिर में धार्मिक आयोजन में मची भगदड़ में 250 लोग कुचलकर मर गए;
महाराष्ट्र के मंधारदेवी में धार्मिक जुलूस में 2005 में करीब 340 लोग मारे गए थे. यह सब देश शायद भूला नहीं होगा. गुजरात में मोरबी में 2022 में एक पुल टूट जाने से बड़ी संख्या में स्थानीय पर्यटकों (तत्कालीन रिपोर्टों के अनुसार 141 से अधिक) की मौत हो गई थी और कई परिवार खत्म हो गए थे. एक छोटी नदी पर बने इस पुल का निर्माण एक अनुभवहीन स्थानीय ठेकेदार ने किया था,
जिसने पहले कभी ऐसा पुल बनाया ही नहीं था. इस सप्ताह के प्रारम्भ में, आंध्र प्रदेश में हैदराबाद के निकट मेडक में एक रासायनिक फैक्ट्री में हुए शक्तिशाली विस्फोट में प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार कम से कम 35 लोगों की मौत हो गई. यह मुझे 1984 की भोपाल गैस त्रासदी की याद दिलाता है जिसमें यूनियन कार्बाइड रसायन कारखाने से गैस रिसाव के कारण हजारों लोग मारे गए थे.
क्या हमारे शहर वाकई ऐसी संभावित दुर्घटनाओं से निपटने के लिए तैयार हैं? इसका जवाब है ‘नहीं’ और यह शीर्ष स्तर के लिए शर्म की बात है. भारत में लोगों की जान बहुत सस्ती है लेकिन उनके ‘वोट’ कीमती होते हैं, यह हमारी असलियत है. देखिये, भोपाल की मानव-निर्मित आपदा से भी भारत ने 40 वर्षों बाद भी सुरक्षा के संबंध में कोई सबक नहीं सीखा है,
जैसा कि 2025 में मेडक विस्फोट से साबित होता है. औद्योगिक सुरक्षा में भी चूक हमारे यहां सामान्य है. एक तरफ भारत अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक अत्याधुनिक अभियान चला रहा है और दूसरी तरफ सड़कों, मेलों और उद्योगों में लोगों की कुचले जाने से मौतें लगातार जारी हैं. भगवान के नाम पर यह क्या हो रहा है? क्या किसी को इस बारे में चिंता है?
या फिर वे माल्थस के इस सिद्धांत पर विश्वास करते हैं कि बढ़ती जनसंख्या खुद-ब-खुद नियंत्रित हो जाती है! ऐसा लगता है कि भगवान भी भारत की विशाल, अशिक्षित भीड़ के सामने असहाय हैं, जो बिना सोचे-समझे उन धार्मिक स्थलों की ओर कूच कर जाते हैं, जहां समुचित सुरक्षा उपाय नहीं हैं. क्या इसे अमृत काल में होने दिया जाना चाहिए? हमारे राजनेताओं को मतदाताओं के इस सवाल का जवाब देना चाहिए.