भारतीय भाषाओं के प्रति नजरिया बदलना जरूरी

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: April 4, 2023 01:52 PM2023-04-04T13:52:40+5:302023-04-04T13:53:44+5:30

दुनिया के तमाम विकसित देश अंग्रेजी शिक्षा के बल पर आगे नहीं बढ़े। रूस, जापान, जर्मनी, फ्रांस ही नहीं सिंगापुर, मलेशिया, तुर्की, क्रोएशिया, सर्बिया, यूक्रेन, थाईलैंड, नीदरलैंड्स, नार्वे, स्वीडन जैसे देशों में भी अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा नहीं दी जाती। वहां प्रशासन में भी स्थानीय भाषा चलती है और राजनीति भी क्षेत्रीय भाषाओं में ही की जाती है।

It is necessary to change the attitude towards Indian languages | भारतीय भाषाओं के प्रति नजरिया बदलना जरूरी

भारतीय भाषाओं के प्रति नजरिया बदलना जरूरी

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने भारतीय भाषाओं में सभी स्तरों पर शिक्षा प्रदान करने की पुरजोर वकालत की है। सोमवार को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय भाषाओं में विश्वस्तरीय ज्ञान अर्जित किया जा सकता है। राष्ट्रपति का सुझाव अत्यंत सार्थक है तथा नई शिक्षा नीति में उस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। भारतीय भाषाओं में शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था हो जाने पर सर्वशिक्षा अभियान का दायरा बढ़ाने तथा समाज के कमजोर तबकों तक शिक्षा की पहुंच का रास्ता खोलने में आसानी हो जाएगी। सच पूछा जाए तो भारतीय भाषाओं के प्रति हमारी सोच संकीर्ण होती जा रही है। अंग्रेजी का आभामंडल इतना व्यापक बना दिया गया है कि सभी तबकों के लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में ही शिक्षा दिलवाने को प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे यह मानसिकता काम करती है कि अंग्रेजी में शिक्षा हासिल करके ही बच्चे का भविष्य उज्ज्वल बन सकता है। यह धारणा इतनी गहराई तक जड़ जमा चुकी है कि न केवल शिक्षा के स्तर पर बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी भारतीय भाषाएं पिछड़ती चली गई हैं। यही नहीं शिक्षा का माध्यम सामाजिक भेदभाव की विकृत मानसिकता को भी जन्म देने लगा है।

 भारतीय भाषाओं में शिक्षा हासिल करने वाले बच्चों को अपने आसपास के परिवेश में उतना सम्मान नहीं मिल पाता जितना अंग्रेजी स्कूल में जाने वाले बच्चों को मिल जाता है। अंग्रेजी का प्रभाव इतना बढ़ चुका है कि भारतीय उसे बोलने में शान समझते हैं, वे अपने बच्चों को भी अंग्रेजी ही बोलता हुआ देखना पसंद करते हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि भारतीय भाषाओं को अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है। नई पीढ़ी के बच्चे अपनी मातृभाषा तथा क्षेत्रीय भाषा से दूर होते जा रहे हैं। अगर उनसे स्थानीय भाषा में बात की जाए तो वे उसे पूरी तरह समझ नहीं पाते। हिंदी देश के हर कोने में बोली और समझी जाती है। यह बात अलग है कि हिंदी को लेकर देश में जब तब राजनीतिक विरोध होता रहता है लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हिंदी देश की ही नहीं दुनिया की सबसे ज्यादा प्रचलित भाषाओं में से एक है। इसके बावजूद अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी नहीं पढ़ाना चाहते। पिछले 15 वर्ष में उभरी नई पीढ़ी को हिंदी की वर्तनी का ज्ञान नहीं है, हिंदी के अंक उन्हें नहीं मालूम। छोटी-छोटी बातें समझाने के लिए स्कूल में शिक्षकों तथा घर में अभिभावकों को अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेना पड़ता है। 

क्षेत्रीय भाषाओं का भी ऐसा ही बुरा हाल हो रहा है। स्थानीय भाषा में शिक्षा न देने के कई नुकसान हैं। बच्चा अपनी मातृभाषा और स्थानीय भाषा से कट जाता है। भारतीय या स्थानीय भाषा संस्कृति एवं सामाजिक तथा पारिवारिक मूल्यों से जोड़ने वाली मजबूत कड़ी है लेकिन अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चों से ये बेशकीमती मूल्य एवं संस्कार छिन जाते हैं। वे पाश्चात्य संस्कृति को अपनी संस्कृति से बेहतर मानते हैं। अंग्रेजी का वर्चस्व विश्व के उन क्षेत्रों में ज्यादा है जहां कभी अंग्रेजों का शासन हुआ करता था। अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ाया तथा तरक्की के लिए उसे एक आदर्श एवं असरदार भाषा के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई। अंग्रेज तो चले गए लेकिन वे भाषायी गुलामी की मानसिकता की इतनी गहरी जड़ें पीछे छोड़ गए कि वे खत्म होने के बजाय बढ़ती ही चली गईं। राजनीतिक नेतृत्व भारतीय भाषाओं के बजाय अंग्रेजी को ही महत्व देता रहा। 

दुनिया के तमाम विकसित देश अंग्रेजी शिक्षा के बल पर आगे नहीं बढ़े। रूस, जापान, जर्मनी, फ्रांस ही नहीं सिंगापुर, मलेशिया, तुर्की, क्रोएशिया, सर्बिया, यूक्रेन, थाईलैंड, नीदरलैंड्स, नार्वे, स्वीडन जैसे देशों में भी अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा नहीं दी जाती। वहां प्रशासन में भी स्थानीय भाषा चलती है और राजनीति भी क्षेत्रीय भाषाओं में ही की जाती है। वहां के शासन प्रमुख या अन्य मंत्री जब विदेश जाते हैं तो साथ में दुभाषिया लेकर जाते हैं क्योंकि वे दूसरे देशों में अंग्रेजी में नहीं बोलते। भारतीय भाषाओं के प्रति हमारे देश में हीनभावना लगातार बढ़ती जा रही है, जो गंभीर चिंता का विषय है। भारतीय भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि अभिभावकों से लेकर राजनीतिक नेतृत्व तक के भीतर इच्छाशक्ति मजबूत हो।

Web Title: It is necessary to change the attitude towards Indian languages

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