राजनीतिक चंदों का पूरी तरह से पारदर्शी होना जरूरी
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: November 1, 2023 10:01 AM2023-11-01T10:01:17+5:302023-11-01T10:07:25+5:30
आखिर जनता को क्यों नहीं जानना चाहिए कि जिन राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को उसे अपने वोट के जरिये चुनना है, उन्हें किन-किन लोगों या कंपनियों ने कितना चंदा दिया है?
ऐसे समय में, जबकि चुनावों के दौरान सारी प्रक्रिया के पारदर्शी होने की बात जोर-शोर से की जा रही है, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि का शीर्ष अदालत में यह कहना कि नागरिकों को सियासी दलों के चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं है, गले उतरने वाली बात नहीं लग रही है।
सुप्रीम कोर्ट इन दिनों प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के जरिये राजनीतिक दलों के वित्तपोषण के लिए चुनावी बांड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने जा रहा है।
इसी के अंतर्गत केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए अटार्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि राजनीतिक दलों को चुनावी बांड योजना के तहत मिलने वाले चंदे के स्रोत के बारे में नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद-19 (1) (ए) के तहत सूचना पाने का अधिकार नहीं है। जबकि निर्वाचन आयोग पारदर्शिता की खातिर उनके नामों का खुलासा करने का समर्थन कर रहा है।
सवाल यह है कि आखिर जनता को क्यों नहीं जानना चाहिए कि जिन राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को उसे अपने वोट के जरिये चुनना है, उन्हें किन-किन लोगों या कंपनियों ने कितना चंदा दिया है? यह पुरानी धारणा है कि जो राजनीतिक दलों को चंदा देता है, वह किसी न किसी तरह से उसका प्रतिदान पाने की भी इच्छा रखता है।
जहां तक चुनावी बांड योजना की बात है, इसे वर्ष 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किया गया था और वर्ष 2018 में लागू किया गया। इस योजना को लाने के पक्ष में दलील दी गई थी कि राजनीतिक दलों की फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए इसे लाया जा रहा है क्योंकि चुनावी बांड के तहत हर राजनीतिक दल को दिए जाने वाले पैसे का हिसाब-किताब बैंक के पास रहता है।
लेकिन इस योजना का विरोध करने वाले याचिकाकर्ताओं का कहना है कि एक तरफ तो चुनावी बांड आम लोगों को चंदा देने वालों की कोई जानकारी नहीं देते और दूसरी तरफ सरकारी बैंक के शामिल होने के कारण सरकार के पास हमेशा यह जानकारी हासिल करने का विकल्प मौजूद रहता है।
हालांकि शुरुआत में इस योजना को बहुत ज्यादा प्रतिसाद नहीं मिला था, लेकिन बाद में इसके जरिये राजनीतिक दलों को अच्छा खासा पैसा मिला और कहा जाता है कि 2018 में लाई गई इस योजना के तहत राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के लिए 9000 करोड़ रुपयों से भी ज्यादा की धनराशि दी जा चुकी है।
थिंक टैंक ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016-17 से 2021-22 के बीच राजनीतिक दलों को मिले सभी चंदे में से आधे से अधिक चुनावी बांड के माध्यम से मिले थे।
राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह हैं लेकिन जहां तक जनता का सवाल है, उसे यह जानने का हक होना चाहिए कि जिन जनप्रतिनिधियों को वह अपने वोट के जरिये चुनती है उसे चुनाव में किसने, कितने पैसों की मदद की है ताकि वह खुद आकलन कर सके कि बाद में कहीं उन दानदाताओं को अनुचित लाभ तो नहीं दिया जा रहा!