ब्लॉग: विज्ञान सम्मत है भारतीय काल-गणना

By प्रमोद भार्गव | Published: April 2, 2022 09:03 AM2022-04-02T09:03:36+5:302022-04-02T09:06:46+5:30

कालमान या तिथि-गणना किसी भी देश की ऐतिहासिकता की आधारशिला होती है. किंतु जिस तरह से हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व धूमिल कर रहा है, कमाबेश यही हश्र हमारे राष्ट्रीय पंचांग, मसलन कैलेंडर का भी है. 

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ब्लॉग: विज्ञान सम्मत है भारतीय काल-गणना

Highlightsविक्रम संवत् का पहला महीना है चैत्र. इसका पहला दिन गुढ़ीपाड़वा कहलाता है.ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी.काल गणना का यह नए साल का पहला दिन हमारे राष्ट्रीय पंचांग का हिस्सा नहीं है.

विक्रम संवत् का पहला महीना है चैत्र. इसका पहला दिन गुढ़ीपाड़वा कहलाता है. ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी. इसलिए इसे नया दिन कहा गया. 

भगवान श्रीराम ने इसी दिन बालि का वध करके दक्षिण भारत की प्रजा को आतंक से छुटकारा दिलाया था. इस कारण भी इस दिन का विशेष महत्व है. लेकिन दुर्भाग्यवश काल गणना का यह नए साल का पहला दिन हमारे राष्ट्रीय पंचांग का हिस्सा नहीं है.

कालमान या तिथि-गणना किसी भी देश की ऐतिहासिकता की आधारशिला होती है. किंतु जिस तरह से हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व धूमिल कर रहा है, कमाबेश यही हश्र हमारे राष्ट्रीय पंचांग, मसलन कैलेंडर का भी है. 

किसी पंचांग की काल-गणना का आधार कोई न कोई प्रचलित संवत् होता है. हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत् है. यद्यपि इसे राष्ट्रीय संवत् की मान्यता नहीं मिलनी चाहिए थी, क्योंकि शक परदेशी थे और हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे. 

यह अलग बात है कि शक भारत में बसने के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसे रच-बस गए कि उनकी मूल पहचान लुप्त हो गई. लेकिन शक संवत् को राष्ट्रीय संवत् की मान्यता देने के बाद भी हम इस संवत् के अनुसार न तो कोई राष्ट्रीय पर्व व जयंतियां मनाते हैं और न ही लोक परंपरा के पर्व. 

तय है, इस संवत् का हमारे दैनंदिन जीवन में कोई महत्व नहीं है. इसके बनिस्बत हमारे संपूर्ण राष्ट्र के लोक व्यवहार में विक्रम संवत् के आधार पर तैयार किया गया पंचांग है. हमारे सभी प्रमुख त्यौहार और तिथियां इसी पंचांग के अनुसार लोक मानस में मनाए जाने की मान्यता है. 

इस पंचांग की विलक्षणता है कि यह ईस्वी सन् से तैयार ग्रेगोरियन कैलेंडर से भी 57 साल पहले वर्चस्व में आ गया था, जबकि शक संवत् की शुरुआत ईस्वी सन् के 78 साल बाद हुई थी. हालांकि संसार में मिले समस्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सबसे प्राचीन पचांग 5125 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था. इसका संबंध महाभारत युग से है. यह युगाब्द संवत् पांडव सम्राट युधिष्ठिर के राज्याभिषेक की तिथि से आरंभ होता है.

प्राचीन भारत और मध्य-अमेरिका- दो ही ऐसे देश थे, जहां आधुनिक सेकेंड से सूक्ष्मतर और प्रकाशवर्ष जैसे उत्कृष्ट कालमान प्रचलन में थे. अमेरिका में मय सभ्यता का वर्चस्व था. 

मय संस्कृति में शुक्र ग्रह के आधार पर काल-गणना की जाती थी. मय के वंशजों ने अनेक देशों में अपनी सभ्यता को विस्तार दिया. इस सभ्यता की दो प्रमुख विशेषताएं थीं, स्थापत्य-कला और दूसरी सूक्ष्म ज्योतिष व खगोलीय गणना में निपुणता. रावण की लंका का निर्माण इन्हीं मय दानवों ने किया था. 

प्राचीन समय में युग, मन्वंतर, कल्प जैसे महत्तम और कालांश लघुतम समय मापक विधियां प्रचलन में थीं. ऋग्वेद में वर्ष को 12 चंद्रमासों में बांटा गया है. हरेक तीसरे वर्ष चंद्र और सौर वर्ष का तालमेल बिठाने के लिए एक अधिकमास जोड़ा गया. इसे मलमास भी कहा जाता है.

तैत्तिरीय ब्राह्मण काल में वर्ष और ऋतुओं की पहचान और उनके समय का निर्धारण प्रचलन में आ गया था. ऋतुओं की स्थिति सूर्य की गति पर आधारित थी. वैदिक युग में ही यह ज्ञात था कि अमुक दिन, अमुक समय से सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण होगा. यह गणना इतनी सटीक है कि तिथि वृद्धि, अधिक मास भी कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं कर पाते. तिथि घटे या बढ़े, लेकिन सूर्यग्रहण सदैव अमावस्या को और चंद्रगहण पूर्णिमा को ही पड़ता है. 

इन सब उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि ऋग्वैदिक काल से ही चंद्रमास और सौर वर्ष के आधार पर की गई काल-गणना प्रचलन में आने लगी थी, जिसे जन सामान्य ने स्वीकार कर लिया था. चंद्रकला की वृद्धि और उसके क्षय के निष्कर्षो को समय नापने का आधार माना गया.

कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के आधार पर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने विक्रम संवत् की विधिवत शुरुआत की. इस हेतु एक वेधशाला भी बनाई गई, जो सूर्य की परिक्रमा पर केंद्रित है. इस दैनंदिन तिथि गणना को पंचांग कहा गया. 

किंतु जब स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपना राष्ट्रीय संवत् अपनाने की बात आई तो कहा गया कि भारतीय काल-गणना उलझाऊ है. इसमें तिथियों और मासों का परिमाप घटता-बढ़ता है, इसलिए यह अवैज्ञानिक है. जबकि राष्ट्रीय न होते हुए भी सरकारी प्रचलन में जो ग्रेगोरियन कैलेंडर है, उसमें भी तिथियों का मान घटता-बढ़ता है. 

मास 30 और 31 दिन के होते हैं. इसके अलावा फरवरी माह कभी 28 तो कभी 29 दिन का होता है. तिथियों में संतुलन बिठाने के इस उपाय को ‘लीप ईयर’ यानी ‘अधिक वर्ष’ कहा जाता है. ऋग्वेद से लेकर विक्रम संवत् तक की सभी भारतीय कालगणनाओं में इसे अधिकमास ही कहा गया है.

ग्रेगोरियन कैलेंडर की रेखांकित की जाने वाली महत्वपूर्ण विसंगति यह है कि दुनिया भर की कालगणनाओं में वर्ष का प्रारंभ वसंत के बीच या उसके आसपास से होता है, जो फागुन में अंगड़ाई लेता है. इसके तत्काल बाद ही चैत्र मास की शुरुआत होती है. इसी समय नई फसल पक कर तैयार होती है, जो एक ऋतुचक्र समाप्त होने और नए वर्ष के ऋतुचक्र के प्रारंभ का संकेत है. 

दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाएं और वित्तीय लेखे-जोखे भी इसी समय नया रूप लेते हैं. अंग्रेजी महीनों के अनुसार वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च का होता है. ग्राम और कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं के वर्ष का यही आधार है. इसलिए हिंदी मास या विक्रम संवत् में चैत्र और वैशाख महीनों को मधुमास कहा गया है. इसी दौरान चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुढ़ीपाड़वा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है.

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