राजेश बादल का ब्लॉग: जवान होते लोकतंत्न में सिकुड़ते जा रहे बुजुर्ग
By राजेश बादल | Published: April 2, 2019 06:48 AM2019-04-02T06:48:17+5:302019-04-02T06:48:17+5:30
मोरारजी देसाई को अस्सी पार करने के बाद प्रधानमंत्नी बनने का अवसर मिला था. चौधरी चरण सिंह, पी.वी. नरसिंहराव, इंद्रकुमार गुजराल और डॉ. मनमोहन सिंह जैसे राजनेता 70 साल का होने के बाद हिंदुस्तान के इस सर्वाधिक चमकदार पद पर विराजे और यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है.
राष्ट्रीय राजनीति दुविधा में है. बुजुर्ग राजनेताओं का क्या किया जाए? उमर भर सियासत के बाद भी अगर दिल, देह और दिमाग सक्रिय है तो इसमें उनकी क्या गलती है. लगता है यह सक्रियता ही उनके लिए परेशानी का सबब बन गई है.
पहले कहा जाता था कि अनुभव का कोई तोड़ नहीं होता. उनका यह अनुभव बाद वाली पीढ़ी के लिए जी का जंजाल बन गया है. बुजुर्ग राजनेता जैसे दो पाटों के बीच पिस रहे हैं.
अधिक उम्र और अनुभव की पूंजी अब उन्हीं के रास्ते का रोड़ा बन गई है. सियासत का शिखर नेतृत्व उन पर भरोसा नहीं करना चाहता. उसे लगता है कि बूढ़े राजनेता आगे नहीं आने देना चाहते.
कब्र में पांव लटकाए बैठे नेताओं में सत्ता की चाहत बरकरार है. वे संयुक्त परिवार के किसी मुखिया की तरह अपने हाथ से हुकूमत फिसलते देख रहे हैं.
द्वंद्व की स्थिति है. दो पीढ़ियों के बीच काम की सक्रियता का कोई आदर्श संतुलन बिंदु हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं खोजा गया है इसीलिए अनेक रूपों में दोनों पीढ़ियां आमने-सामने नजर आती हैं. इस व्यथा, वेदना और संत्नास का अहसास लालकृष्ण आडवाणी से बेहतर कौन समझ सकता है. पहले जनसंघ, फिर जनता पार्टी और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुषों में से एक.
भारतीय राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद के पुरोधाओं श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राममनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी के बाद एक सशक्त हस्ताक्षर. इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि वे प्रधानमंत्नी पद के लिए सर्वथा योग्य थे. न सही प्रधानमंत्नी, राष्ट्रपति के रूप में भी यह मुल्क उन्हें खुशी से स्वीकार कर सकता था, पर ऐसा नहीं हुआ.
आज आडवाणी एक बेबस, लाचार और असहाय राजनेता नजर आते हैं. वक्त की घड़ी के अलावा उमर ने भी उनके साथ छल किया है.
कमोबेश यही स्थिति मुरलीमनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, बाबूलाल गौर, सुमित्ना महाजन, शांता कुमार से लेकर शत्नुघ्न सिन्हा और उनके समवयस्क अनेक नेताओं की है. उन्हें भी उपेक्षा और अपमान का भाव सताने लगा है.
मध्य प्रदेश के एक राजनेता रघुनंदन शर्मा का ताजा बयान उनकी पीढ़ी के दर्द की अभिव्यक्ति है. उन्होंने कहा कि अपनी ही पार्टी में उनके जैसे अनेक लोग जीते जी स्वर्गवासी हो गए हैं. पीड़ा की यह चरम स्थिति है. दूसरी ओर विपक्ष में मणिशंकर अय्यर, मोतीलाल वोरा, नटवर सिंह जैसे राजनेता अपने को एक तरह से सक्रिय राजनीति से अलग कर चुके हैं. एक वरिष्ठता के बाद यथोचित स्थान नहीं मिलने के कारण शरद यादव और अर्जुन सिंह जैसे राजनेता अपनी पार्टी छोड़ बैठे थे.
पर यह भी दिलचस्प है कि भारतीय राजनीति में लंबी उम्र के बाद भी अनेक शिखर पुरुषों को अप्रत्याशित सफलताएं मिली हैं. मोरारजी देसाई को अस्सी पार करने के बाद प्रधानमंत्नी बनने का अवसर मिला था. चौधरी चरण सिंह, पी.वी. नरसिंहराव, इंद्रकुमार गुजराल और डॉ. मनमोहन सिंह जैसे राजनेता 70 साल का होने के बाद हिंदुस्तान के इस सर्वाधिक चमकदार पद पर विराजे और यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है.
यही नहीं, कुछ राजनेताओं की सियासी पारी करीब-करीब पूरी होने के बाद राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद संभालने का मौका मिला है.
राजस्थान की श्रीमती कमला, जगन्नाथ पहाड़िया, ओडिशा के जे.बी. पटनायक, नारायणदत्त तिवारी, सुरजीत सिंह बरनाला और रामनरेश यादव जैसे अनेक अनुभवी नाम हैं, जिन्होंने सत्तर और अस्सी की आयु पार करने के बाद राज्यपाल की भूमिका में बखूबी जिम्मेदारी निभाई है. डॉ. शंकर दयाल शर्मा तो राज्यपाल, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति भी रहे.
तो क्या हम अपनी पुरानी पीढ़ी को लेकर अचानक असंवेदनशील हो गए हैं? क्या हमारे गणतंत्न में अनुभव और ज्ञान को सिर्फ इस कारण तरजीह नहीं मिलेगी कि वह उम्रदराज लोगों के पास है? आज भारतीय समाज को अपने इस हाल पर विचार क्यों नहीं करना चाहिए? याद रखना होगा कि कोई भी लोकतंत्न तभी परिपक्व बनता है, जब वह सारे वर्गो, धर्मो, रीति-रिवाजों, भाषाओं और आयुवर्गो का ख्याल रखता है.
अगर अनुभव की पूंजी कमाने के बाद एक पीढ़ी को यह लगता है कि जमाना बदल चुका है और अब वह नाकारा हो गई है तो याद रखिए कि उसे हाशिए पर धकेलने वाली पीढ़ी भी कतार में है. भारतीय राष्ट्र राज्य की कल्पना में योग्यता और अनुभव को उमर की सीमा में नहीं बांधा जा सकता. यह तथ्य वर्तमान सियासी नियंताओं को ध्यान में रखना होगा.