जड़ता कहीं लोकतंत्न का स्थायी भाव न बन जाए?

By राजेश बादल | Published: July 24, 2018 01:22 AM2018-07-24T01:22:36+5:302018-07-24T01:22:36+5:30

संसद की बैठकों के कम होते दिन और बहस का गिरता स्तर अनेक वर्षो से विभिन्न मंचों पर उठाया जाता रहा है। कई दशक से यह प्रस्ताव विचाराधीन है कि साल भर में लोकसभा के लिए एक सौ बीस  दिन और राज्यसभा के लिए सौ दिन अनिवार्य कर दिए जाने चाहिए।

indian parliament lok sabha proceedings narendra modi government | जड़ता कहीं लोकतंत्न का स्थायी भाव न बन जाए?

जड़ता कहीं लोकतंत्न का स्थायी भाव न बन जाए?

मौजूदा संसद का कार्यकाल अंतिम चरण में है। सिर्फ शीतकालीन सत्न शेष है। उन दिनों कुछ विधानसभाओं के चुनाव और अगले आम चुनाव की सरगर्मियों के चलते शीतकालीन सत्न में किसी चमत्कार की आशा बेकार है। इस साल बजट और मानसून सत्नों का अनुभव देखें तो निराशाजनक तस्वीर उभरती है। लोकतंत्न की इस सर्वोच्च पंचायत में साल दर साल घटता कामकाज यकीनन  चिंता का अवसर देता है। क्या इसकी गरिमा का ख्याल माननीय राजनेताओं को है? जिन करोड़ों मतदाताओं ने उन्हें इस महान संस्था का सदस्य चुना है, वे अवसाद और क्षोभ से भरे हुए हैं। 

गुस्सा यह है कि वे अपने अनमोल मत का उपयोग कर जिन मसलों के साथ उन्हें सदन में भेजते हैं, पूरे पांच साल उन पर ये प्रतिनिधि मुंह तक नहीं खोलते। अगला चुनाव आ जाता है और जनता के मुद्दे नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाते हैं। यक्ष प्रश्न है कि क्या भारतीय लोकतंत्न की यह जड़ता इसका स्थायी भाव बनती जा रही है?

संसद की बैठकों के कम होते दिन और बहस का गिरता स्तर अनेक वर्षो से विभिन्न मंचों पर उठाया जाता रहा है। कई दशक से यह प्रस्ताव विचाराधीन है कि साल भर में लोकसभा के लिए एक सौ बीस  दिन और राज्यसभा के लिए सौ दिन अनिवार्य कर दिए जाने चाहिए। संसद की सामान्य कामकाज समिति ने 63 साल पहले  22 अप्रैल 1955 को अपनी सिफारिशों में कहा था कि साल में कम से कम तीन सत्न और 100 दिन काम तो इतने बड़े देश की संसद में होने ही चाहिए। 

न केवल नेहरू मंत्रिमंडल ने इसे मंजूर किया बल्कि उस दौर के प्रतिपक्षी राजनीतिक पंडितों ने भी इसे बेहद जरूरी माना था। इनमें अटलबिहारी वाजपेयी, राममनोहर लोहिया, मधु दंडवते, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, इंद्रजीत गुप्त, मधु लिमये और जगजीवन राम जैसे धुरंधर शामिल थे। पक्ष और प्रतिपक्ष ने इसे एक तरह से अपनी गीता मान लिया। 

इसका असर दिखा और पहली संसद में ही 677 बैठकें लोकसभा में हुईं। राज्यसभा की बैठकों की संख्या 565 रही। इसमें 3784 घंटे काम लोकसभा में हुआ। पहले पांच वर्षो में हर साल 135 दिन औसत निकल कर आया और इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1971 से 1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4071 घंटे रिकॉर्ड काम हुआ। नहीं भूलना चाहिए कि उस समय हिंदुस्तान की आबादी सिर्फ 41 करोड़ थी।

पहली लोकसभा के दौर के भारत को देखें तो चुनौतियां कम थीं। एक भी जंग नहीं हुई थी (कबाइली छापामारों की घुसपैठ छोड़ दें) और चीन-पाकिस्तान से संबंध सामान्य ही थे। सीमा सुरक्षा की चिंताएं औसत ही थीं। आतंकवाद ने अपना सिर नहीं उठाया था। बेरोजगारी आज की तरह नहीं थी। विदेश नीति में आज की तरह कारोबारी उलझनें शामिल नहीं थीं। 

अपराध और हिंसा नियंत्नण में थी। सामाजिक विघटन आज की तरह नहीं था। पड़ोसियों से हमारे संबंध मधुर थे। अंतरिक्ष में होड़, परमाणु क्षमता, औद्योगिक विस्तार, जल और पर्यावरण संकट, संचार साधनों से उपजी चुनौतियां, लोगों की चाहतें, सोशल मीडिया से उपजी समस्याएं आज की तरह नहीं थीं। मुख्य सरोकार खेती, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और संचार जैसे बुनियादी मसलों से जुड़े थे।

इन स्थितियों में अगर सौ दिन का काम अनिवार्य माना गया तो निवेदन है कि आज के हालात की कल्पना करें। करीब सवा सौ करोड़ आबादी हो चुकी है। जितनी अंदरूनी समस्याएं हैं, बाहरी उससे कम नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय और प्रभावी उपस्थिति एक उभरती महाशक्ति के अपने अस्तित्व के लिए अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में संसद सत्न सौ से बढ़ाकर दो सौ दिन करने की बात होनी चाहिए। उस पर किसी का ध्यान नहीं है।  

गंभीर और सार्थक बहसें निरंतर कम हो रही हैं।  पूर्णकालिक चुनावी राजनीति और सियासी कड़वाहट के चलते मुल्क का विकास पीड़ित है। इसके बावजूद सौ दिन भी संसद न चले, अवरोध बढ़ते जाएं तो यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं होगा कि हमारा तंत्न लोकतंत्न के सर्वोच्च मंदिर की उपेक्षा कर रहा है। 

एक नजर ताजा आंकड़ों पर डालें तो तस्वीर विकराल और भयावह नजर आती है। बीता एक दशक तो जैसे काम कम करने का रिकॉर्ड बनाता दिखता है। इस साल का बजट सत्न दशक का सबसे खराब सत्न माना जा सकता है। केवल 22 बैठकें हो सकीं। लोकसभा के काम का प्रतिशत केवल पच्चीस रहा, जबकि राज्यसभा ने पैंतीस फीसदी काम किया। पिछले वर्षो के आंकड़ों को देखें तो पाते हैं कि पिछले साल केवल 57 दिन और 2016 में मात्न 70 दिन काम हो पाया था। अतीत में झांकें तो इस सदी की शुरुआत ही ठीक नहीं रही। लोकसभा मात्न 85 दिन चली। सन 2006 में 77, 2007 में 66  और 2008 में भी सौ से कम दिन काम हुआ। यह साल तो केवल दो सत्नों के कारण याद रखा जाएगा।

संसद की तरह ही राज्यों की विधानसभाओं में भी काम के दिन, उत्पादकता और बहस की गुणवत्ता में कमी आई है। कमोबेश हर विधानसभा इस बीमारी की शिकार है। विधायक बहसों में दिलचस्पी नहीं लेते और न ही अपने क्षेत्न के मुद्दे उठाने पर उनका जोर होता है। अलबत्ता जिस मुद्दे पर उन्हें मीडिया में प्रचार मिलता है, उसे वो नहीं छोड़ते।  

संसद में घटते काम का एक कारण सांसदों में राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर शोध और शिक्षा में दिलचस्पी नहीं लेना भी है। बमुश्किल चार-पांच फीसदी सांसद अखिल भारतीय या अंतर्राष्ट्रीय सोच रखते हैं। राजनीतिक दल भी अब खुल्लमखुल्ला कहते हैं कि सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवार को ही टिकट दिया जाएगा। आजकल चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक और बौद्धिक परिपक्वता की जरूरत नहीं रही है। धनबल, जातिगत समीकरण, स्थानीय नेटवर्क, विरोधी खेमों में मारकाट की क्षमता और बाहुबली होना आज की अनिवार्य योग्यता है। ऐसे में आप संसद में कैसे श्रेष्ठ चर्चाओं की उम्मीद कर सकते हैं? 

एक जमाना था जब सांसद कम-से-कम एक घंटे लाइब्रेरी में बैठते ही थे। आज तो वे वहां दिखाई ही नहीं देते। नए सांसदों के लिए आज भी संसद की ओर से प्रशिक्षण कार्यक्र मों की व्यवस्था होती है। पहले सिद्धांतों की राजनीति के चलते पढ़ने की आदत थी और सरोकारों के प्रति नेता संवेदनशील रहते थे। इसलिए  प्रशिक्षण कार्यशालाओं का हिस्सा सिर्फ संसद में कामकाज का ढंग तथा तरीका समझाना होता था। आज भी उसी ढर्रे पर ये प्रशिक्षण कार्यक्र म चल रहे हैं। 

न राजनीतिक पार्टियों को इसकी चिंता है और न सांसदों को खुद अपनी भूमिका की फिक्र  है। वे अपने वेतन - भत्तों को लेकर तो संवेदनशील हैं मगर सरोकार उनकी प्राथमिकता सूची में हाशिए पर है। क्या राजनीतिक दलों को अंदाजा है कि उन पर इस देश की जनता का कितना पैसा खर्च होता है? दोनों सदनों के सांसदों के वेतन-भत्तों पर पिछले वित्त वर्ष में चार सौ करोड़ रु पए से ज्यादा खर्च हुए हैं। अगर इसमें दोनों सदनों का खर्च भी जोड़ दिया जाए तो यह लगभग एक हजार करोड़ से भी अधिक होता है।

यह एक चेतावनी भरी घंटी है। लोकतंत्न के पैरोकारों को इसे गंभीरता से लेना ही होगा। संसद की उपेक्षा करने पर अगर संसद ने उनकी उपेक्षा की तो वे कहीं के न रहेंगे, यह बात राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को समझनी होगी। 

Web Title: indian parliament lok sabha proceedings narendra modi government

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे