ब्लॉग: चीन की चाल को नाकाम करने के लिए भारत को छोटे पड़ोसी देशों की दुविधा को समझने की जरूरत

By राजेश बादल | Published: April 7, 2023 07:15 AM2023-04-07T07:15:16+5:302023-04-07T07:18:11+5:30

भारत के लिए जरूरी है कि वह पड़ोसियों की राष्ट्रीय दुविधाओं और चिंताओं का ख्याल करे. यही लंबे और टिकाऊ रिश्तों के लिए जरूरी है. इसमें चूक होने पर चीन इसका फायदा उठाने के लिए तैयार बैठा है.

India needs to understand the dilemma of smaller neighbors to thwart China's ploy | ब्लॉग: चीन की चाल को नाकाम करने के लिए भारत को छोटे पड़ोसी देशों की दुविधा को समझने की जरूरत

चीन की चाल को नाकाम करने की जरूरत (फाइल फोटो)

भारत के खूबसूरत पड़ोसी देश भूटान के नौजवान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक की तीन दिवसीय भारत यात्रा के अनेक अर्थ लगाए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि उनके इस दौरे से एशिया का स्वयंभू चौधरी चीन असहज महसूस कर रहा है. उसे लग रहा है कि बीते दिनों भूटानी प्रधानमंत्री लोटे शेरिंग ने अपने बयान से उसका अप्रत्यक्ष समर्थन कर दिया था. चीन इससे प्रसन्न था, लेकिन भारत के लिए यह परेशानी में डालने वाला था. 

राहत की बात यह है कि भूटान नरेश ने भारत की चिंताओं को समझा है और अपनी यात्रा में रिश्तों को संतुलित बनाने का प्रयास किया है. जानकारों का एक समूह कह रहा है कि अपने प्रधानमंत्री की बेल्जियम यात्रा से स्वयं भूटानी नरेश प्रसन्न नहीं हैं. इसलिए उन्होंने भारत के साथ रिश्तों में जम रही बर्फ को तोड़ने के लिए भारत आने का फैसला लिया. संभवतया इसी वजह से भारत यात्रा में उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को शामिल नहीं किया. 

नरेश के साथ विदेश व्यापार मंत्री डॉक्टर टांडी दोरजी और भारी-भरकम प्रतिनिधिमंडल आया. इस दल ने अपने प्रधानमंत्री के बयान से उपजी गलतफहमी दूर करने का प्रयास किया. संदर्भ के तौर पर भूटानी प्रधानमंत्री का वह कथन याद करना आवश्यक है, जिसमें उन्होंने कहा था कि चीन ने भूटान सीमा में कोई निर्माण या अतिक्रमण नहीं किया है. जो भी निर्माण चल रहा है, वह भूटान की सीमा से बाहर है. उन्होंने यह बात बेल्जियम दौरे के दरम्यान वहां के अखबार लॉ लेबरे को साक्षात्कार में कही थी. 

जब बवाल हुआ तो उन्होंने अपने मुल्क के समाचार पत्र द भूटनीज में गोलमोल सा स्पष्टीकरण दिया कि डोकलाम के बारे में भूटान के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है. यहां याद रखना जरूरी है कि भूटान ने पंद्रह साल पहले राजशाही वाले लोकतंत्र को अपनाया था. इससे पहले भारतीय लोकतंत्र को समझने के लिए भूटान नरेश ने खास दल भी भेजे थे. भूटान के वर्तमान लोकतंत्र में राजा आज भी सर्वोच्च है, मगर उनके प्रधानमंत्री और अन्य सदस्य निर्वाचित होते हैं. इनमें पार्टियां हिस्सा लेती हैं. 

भूटान की संसद को राष्ट्रीय परिषद् कहा जाता है. भारत की तरह वहां भी उच्च सदन तथा निम्न सदन हैं. उच्च सदन राज्यसभा की तरह और निम्न सदन लोकसभा जैसा है. भूटान के राजनीतिक दलों में कुछ चीन, कुछ भारत से दोस्ती के पक्षधर माने जाते हैं. मुख्य विपक्षी दल द्रुक फुएनसम शोगपा (डीपीटी) खुले तौर पर चीन समर्थक है.  

करीब छह बरस पहले भूटान ने दावा किया था कि डोकलाम उसका अपना इलाका है. लेकिन चीन ऐसा नहीं मानता. डोकलाम एक पठारी क्षेत्र है, जिस पर चीन और भूटान के बीच विवाद चल रहा है. एक संधि के तहत उसकी हिफाजत भारतीय सेना करती रही है. लेकिन पांच साल पहले जून से 28 अगस्त, 2017 के बीच भारत और चीन की सेनाएं आमने-सामने डटी रही थीं. दोनों के बीच हिंसक झड़पें भी हुई थीं. 

चीन की मंशा डोकलाम में भूटान सीमा का अतिक्रमण करना था. यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के नजरिये से प्रतिकूल था. भारत ने चीन को पीछे हटने पर मजबूर किया. यह भारत की बड़ी कूटनीतिक-रणनीतिक जीत थी. इसके बाद दक्षिण एशिया के देशों में भारत के प्रति धारणा बदली. पहले वे चीन के विस्तारवादी रवैये से भयभीत रहते थे. इन्हीं दिनों चीन ने बेल्ट एंड रोड शिखर बैठक बुलाई. भारत ने इसका बहिष्कार किया. 

भारत का कहना था कि यह परियोजना कई देशों की संप्रभुता का हनन करती है. परियोजना के पक्ष में अनेक देश नहीं थे. चीन ने इसके बाद से ही चुपचाप भारत के पड़ोसियों से सीधे संपर्क कर उन्हें ललचाने का काम शुरू किया. उसने श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को भरपूर आर्थिक मदद दी, नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री के.पी. ओली को उपकृत किया, पाकिस्तान के फौजी अफसरों को लाभ पहुंचाया, मालदीव के पूर्व सत्ता प्रमुख को धन दिया और म्यांमार के सैनिक शासकों को खरीद लिया. भूटान के प्रधानमंत्री लोटे शेरिंग के बारे में भी यही चर्चाएं हैं. भूटान नरेश अपने स्तर पर इन आरोपों की खुफिया जांच भी करा रहे हैं.

दरअसल डोकलाम जैसी स्थिति नेपाल के कालापानी की भी है. वहां भी चीन से 1962 की जंग के बाद से भारतीय सेना तैनात है और नेपाल तथा भारत की सीमाओं की रक्षा करती रही है. जब डोकलाम में चीन की दाल उस तरह से नहीं गली जैसी कि वह चाहता था तो उसने नेपाल में जन आंदोलन को पर्दे के पीछे से हवा दी. लेकिन भारत ने उन्हीं दिनों नेपाल की आर्थिक नाकाबंदी कर दी. इससे नेपाली नागरिकों को भारी परेशानी हुई. वहां चीन समर्थित नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी ने लाभ उठाया और भारत विरोधी भावनाएं भड़काईं. 

भूटान में भी यही हुआ. आपको याद होगा कि चीनी राष्ट्रपति अक्तूबर में भारत से सीधे नेपाल गए थे और वहां से तिब्बत के संदर्भ में बेहद तीखा बयान दिया था कि चीन अपनी जमीन के एक इंच पर भी किसी को अधिकार नहीं करने देगा और हड्डी-पसली तोड़ देगा. इसके बाद नेपाल में भारत विरोधी आंदोलन तेज हो गए. भारत और नेपाल के रिश्ते अतीत में कितने ही मधुर रहे हों लेकिन हकीकत तो यही है कि बीते कुछ वर्षों में नेपाल भारत से छिटका है और चीन के करीब गया है. 

आर्थिक नाकाबंदी की कड़वाहट अभी तक नेपाल भूला नहीं है. इस कड़ी में म्यांमार की कहानी भी भूटान और श्रीलंका से अलग नहीं है. वहां के आतंकवादी शिविरों पर हमले करने की अनुमति म्यांमार ने दी, लेकिन उसके बाद भारत के अफसर और नेता अपनी पीठ थपथपाने लगे. यह बात म्यांमार को अखरी. तब से आज तक म्यांमार चीन की गोद में बैठा भारत को आंखें दिखा रहा है. 

तीन देशों के साथ हालिया घटनाक्रम यह संदेश दे रहा है कि पड़ोसियों की राष्ट्रीय दुविधाओं और चिंताओं का ख्याल करना लंबे और टिकाऊ रिश्तों के लिए जरूरी है. अन्यथा चीन तो फायदा उठाने के लिए तैयार बैठा ही है.

Web Title: India needs to understand the dilemma of smaller neighbors to thwart China's ploy

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