विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: भेदभाव की मानसिकता से उबरकर ही बना सकते हैं मानवीय समाज
By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 8, 2023 04:55 PM2023-02-08T16:55:57+5:302023-02-08T16:57:19+5:30
मेरे जैसे लोग अक्सर इस गीत को गुनगुनाते रहते थे, अब भी अवसर आने पर दुहराते हैं। इस गीत में मनुष्य की एकता और समानता का एक संदेश है जो आज मनुष्य मात्र की आवश्यकता है।
बरसों पहले बनी थी वह फिल्म जिसमें एक मुसलमान द्वारा एक अनाथ हिंदू बच्चे की परवरिश के दृश्य थे। उसी फिल्म का गाना है यह जिसमें गीतकार साहिर लुधियानवी ने कहा था, 'न हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।' मेरे जैसे लोग अक्सर इस गीत को गुनगुनाते रहते थे, अब भी अवसर आने पर दुहराते हैं। इस गीत में मनुष्य की एकता और समानता का एक संदेश है जो आज मनुष्य मात्र की आवश्यकता है।
हाल ही में जब मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का यह बयान सुना कि 'भगवान ने कहा है मेरे लिए सब एक हैं, उनमें कोई जाति-वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने शास्त्रों का सहारा लेकर जाति-आधारित ऊंच-नीच की बात की है, वह गलत है', तो अनायास ही मैं साहिर के इस गीत को गुनगुनाने लगा था। दरअसल आवश्यकता इस गीत के भाव को समझने और उसके अनुसार आचरण करने की है।
मुंबई में संत रविदास जयंती के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए श्री भागवत ने जाति-प्रथा की विसंगति पर चोट करते हुए यह बात कही थी। 'कठौती में गंगा' का मंत्र सिखाने वाले संत रविदास ने मनुष्यता का ही एक संदेश दिया था, जो आज भी हमारी आवश्यकता है। हमारी यानी मनुष्य मात्र की आवश्यकता। मोहन भागवत संत रविदास के इसी संदेश की बात कर रहे थे। यह दुर्भाग्य ही है कि मोहन भागवत की यह बात विवादों के घेरे में आ गई है।
भारत और भारतीय समाज जाति-प्रथा के अभिशाप को सदियों से भुगत रहा है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जब हमने 'समता, न्याय और बंधुता' के आधार पर अपना संविधान बनाया तो उम्मीद यह की गई थी कि हमारा भारत एक ऐसा समाज बनेगा जिसमें धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग के आधार पर किसी तरह का भेद-भाव नहीं बरता जाएगा।
सब समान होंगे, सबको जीने, प्रगति करने का समान अधिकार होगा, समान अवसर मिलेंगे। पर, दुर्भाग्य से, ऐसा हुआ नहीं, ऐसा होता नहीं दिख रहा। धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, वर्ण के नाम पर आज भी हम बंटे हुए हैं। ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद जाति या धर्म-आधारित व्यवस्था में कुछ सुधार नहीं हुआ। हुआ है सुधार, और सुधार की कोशिशें भी होती रहती हैं, पर अब राजनीतिक स्वार्थों से हमें परिचालित किया जा रहा है।
साहिर लुधियानवी ने अपने गीत 'इंसान की औलाद' का हवाला देकर जो बात कही थी, वह एक शाश्वत सत्य है। इस सत्य को समझना-स्वीकारना होगा हमें। आदमी को बांटने का कर्म मनुष्यता-विरोधी काम है। बंटवारे की इस मानसिकता से उबरकर ही हम एक मानवीय समाज बना सकते हैं। कब उबरेंगे हम?