ब्लॉग: प्रतीक संकेत होते हैं, उपलब्धि नहीं! द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में बदलाव की कितनी उम्मीद

By विश्वनाथ सचदेव | Published: July 27, 2022 10:58 AM2022-07-27T10:58:11+5:302022-07-27T11:00:10+5:30

द्रौपदी मुर्मू देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं, और इस सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली पहली आदिवासी महिला हैं. ऐसा संभव है कि आगामी चुनाव में भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ उठाने का मौका भी मिले.

Hope of change in lives of tribals with Draupadi Murmu becoming President | ब्लॉग: प्रतीक संकेत होते हैं, उपलब्धि नहीं! द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में बदलाव की कितनी उम्मीद

द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में बदलाव की कितनी उम्मीद? (फाइल फोटो)

इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले पचास-साठ वर्षों में देश के आदिवासी क्षेत्रों में उनके जीवन को बेहतर बनाने की कोशिशें हुई हैं. कुछ बदलाव आया भी है. पर यह ‘कुछ’ बहुत कम है- इस दिशा में बहुत कुछ होना बाकी है. इसीलिए द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने को आशा-भरी निगाहों से देखा जा रहा है. अपने पहले भाषण में ही आदिवासियों के जीवन में बदलाव लाने को अपनी एक प्राथमिकता बता कर उन्होंने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया है कि वे इस दिशा में प्रयत्नशील रहेंगी.

कहा जा रहा है कि उन्हें राष्ट्रपति बनवाकर भाजपा के नेतृत्व ने एक दुहरा दांव खेला है- द्रौपदी मुर्मू देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं, और इस सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली पहली आदिवासी महिला हैं. हो सकता है आगामी चुनाव में भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ उठाने का मौका भी मिले. देश में दस करोड़ से अधिक आबादी आदिवासियों की है और गुजरात, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इन आदिवासियों के वोट बहुत मायने रखते हैं. 
अब भाजपा यह दावा तो कर ही सकती है कि उसने एक आदिवासी महिला को देश का सर्वोच्च पद दिलाया है. जब देश के आदिवासियों ने राष्ट्रपति के पद-ग्रहण का आंखों देखा हाल टी.वी. चैनलों पर देखा होगा तो निश्चित रूप से उन्हें गर्व की अनुभूति हुई होगी. उनकी इस अनुभूति का लाभ भाजपा को मिल सकता है.

जब देश का संविधान बना था तो आदिवासी नेता जयपाल मुंडा ने नए संविधान को ‘आदिवासियों के लिए छह हजार साल के उत्पीड़न के बाद एक अवसर’ बताया था. यह आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं. इन्हें इस ‘अवसर’ का कितना लाभ मिला है, श्रीमती मुर्मू को इसके एक प्रतीक के रूप में देखा जाने की बात कही जा रही है. 

प्रतीकों का महत्व होता है, पर वे किसी उपलब्धि का वास्तविक पैमाना नहीं होते. यह एक हकीकत है कि आजादी के इन पचहत्तर सालों में देश के आदिवासियों के जीवन में उतना सुधार नहीं आ पाया जितना आना चाहिए था. नई राष्ट्रपति ने कहा है कि उनका इस पद तक पहुंचना इस बात का एक उदाहरण है कि गरीबों को सपने देखने का भी हक है और उन्हें पूरा होते देखने का भी. 

उम्मीद की जानी चाहिए कि संविधान के संरक्षक के रूप में राष्ट्रपति की भूमिका निभाते हुए वे इन आश्वासनों को पूरा करने की दिशा में सार्थक पहल करने में सफल होंगी. एक आदिवासी महिला का राष्ट्रपति बनना अपने आप में देश के लिए एक शानदार उपलब्धि है. पर इस बात को भुलाया नहीं जाना चाहिए कि राजनीति के खिलाड़ी इस तरह की उपलब्धियों का राजनीतिक लाभ उठाने में पीछे नहीं रहते. श्रीमती मुर्मू की उम्मीदवारी के साथ ही भाजपा के नेताओं-प्रवक्ताओं ने इस बात का ढोल पीटना शुरू कर दिया था. 
निश्चित रूप से चुनावों में भी इस बात को दुहराया जाएगा. मैं यहां इस बात को दुहराना चाहता हूं कि प्रतीक संकेत होते हैं, उपलब्धि नहीं. उपलब्धि तो वे तब बनते हैं, जब उनके निहितार्थ उजागर होकर सामने आते हैं, परिणाम दिखने लगते हैं.

आदिवासियों के विकास का ऐसा ही एक प्रतीक देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में भी सामने रखा गया था. बात 1959 की है. तत्कालीन प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल की एक परियोजना के उद्घाटन के लिए गए थे. वहां पंद्रह वर्ष की एक आदिवासी युवती, बुधनी ने माला पहनाकर उनका स्वागत किया. यह सोचकर कि परियोजना का उद्घाटन कोई ऐसा आदिवासी करे जिसने इसके निर्माण में हिस्सा लिया हो, नेहरूजी ने बुधनी के हाथों यह कार्य करवाया. उसे माला पहनाई. 

बुधनी संथाल समाज की थी. संथालों में यह परम्परा है कि युवक-युवती एक-दूसरे को माला पहनाते हैं और इसे विवाह सम्पन्न होना मान लिया जाता है. इस परम्परा के अनुसार नेहरूजी और बुधनी का ‘विवाह’ हो गया था. उसी रात संथाल-समाज की पंचायत बैठी. बुधनी को विवाहित घोषित कर दिया गया और चूंकि नेहरू आदिवासी नहीं थे इसलिए बुधनी के ‘विवाह करने’ को एक अपराध मान लिया गया. बुधनी जाति से बहिष्कृत कर दी गई थी.

यह घटना उदाहरण है इस बात का कि आदिवासी समाज आज भी कुछ रूढ़ियों में बंधा हुआ है. इस समाज के विकास का मतलब ऐसी रूढ़ियों से मुक्त होना भी है जो देश के एक बड़े तबके को देश की मुख्यधारा से जोड़ने में बाधक बनी हुई है. वैसे, यह मान लेना भी अपने आप में सही नहीं है कि किसी-जाति-विशेष या वर्ग-विशेष के व्यक्ति के सत्ता में आने से उस जाति-वर्ग का भला हो जाएगा. 

हां, ऐसी स्थिति में यह कार्य कुछ प्रमुखता अवश्य पा लेता है. लेकिन कार्य तभी आगे बढ़ेगा जब शेष समाज इस कार्य की महत्ता को समझेगा. आवश्यकता आदिवासियों वनवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने की भी है- और यह कार्य उनके परम्परागत जीवन की रक्षा करते हुए भी होना चाहिए. उम्मीद की जानी चाहिए कि नई राष्ट्रपति इस दिशा में मार्गदर्शन करेंगी.

Web Title: Hope of change in lives of tribals with Draupadi Murmu becoming President

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