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श्रद्धांजलि: पढ़ें कवि केदारनाथ सिंह की 10 प्रतिनिधि कविताएँ

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: March 20, 2018 17:39 IST

हिन्दी कवि केदारनाथ सिंह का 19 मार्च को 83 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। तीसरे तार सप्तक (1959) के कवि केदारनाथ ज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कर चुके थे।

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धीमी चाल, खुली मुस्कान, मद्धम लहजे में बात, अंतःकरण तक उतर जाने वाली सरल कविताई कवि केदारनाथ सिंह की पहचान रही है। साहित्य संसार में उनकी कविताओं को जितना प्यार मिला, कवि केदार को भी उतना ही मान मिला। कवि अशोक वाजपेयी के शब्दों में वो अजातशत्रु थे। साहित्य जगत में उनका कोई वैरी नहीं था। साल 2013 में साहित्य अकादमी के वार्षिक समारोह में जब मैंने भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखकों से उनके प्रिय हिन्दी कवि का नाम पूछा तो सभी ने केदारनाथ सिंह का नाम जरूर लिया। गैर-हिन्दी साहित्य जगत में अपने प्रिय कवि की इस लोकप्रियता से थोड़ा कौतुक हुआ, थोड़ा गौरव भी। केदारनाथ सिंह सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन के तीसरे सप्तक (1959) के सात कवियों में थे। इस सप्तक के तीन कवि (कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना) आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े कवि के रूप में स्थापित हुए। कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित हुए। तीसरे सप्तक में शामिल विजय देवनारायण साही को कवि से ज्यादा आलोचक के रूप में ख्याति मिली। 20 नवंबर 1934 को केदारनाथ सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया स्थित चकिया गाँव में हुआ था। बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यलाय से उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की। पहले यूपी के एक कॉलेज में शिक्षक हुए फिर दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर बने और वहीं से रिटायर हुए। 19 मार्च 2018 को उन्होंने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में आखिरी साँसें लीं। उनके निधन की खबर से साहित्य प्रेमियों के बीच शोक की लहर दौड़ गयी। कविता प्रेमी और केदारनाथ सिंह के चाहने वाले अपनी पसंदीदा कविताओं से उन्हें याद कर रहे हैं। केदारनाथ सिंह के आधा दर्जन से ज्यादा कविता संग्रह प्रकाशित हैं। उनमें से 10 कविताएँ चुनना दुष्कर काम है फिर भी लोकमत न्यूज ने उनकी 10 प्रतिनिधि कविताओं के चयन का प्रयास किया है। उम्मीद है आपको ये पसंद आएंगी-

01-हाथ

उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचादुनिया कोहाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।

02- जाना

मैं जा रही हूँ – उसने कहाजाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जानाहिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.

03- तुम आयीं

तुम आयींजैसे छीमियों में धीरे- धीरेआता है रसजैसे चलते - चलते एड़ी मेंकाँटा जाए धँस तुम दिखींजैसे कोई बच्चा सुन रहा हो कहानीतुम हँसीजैसे तट पर बजता हो पानीतुम हिलींजैसे हिलती है पत्तीजैसे लालटेन के शीशे मेंकाँपती हो बत्ती !तुमने छुआजैसे धूप में धीरे- धीरेउड़ता है भुआ

और अन्त मेंजैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों कोतुमने मुझे पकायाऔर इस तरह जैसे दाने अलगाये जाते है भूसे सेतुमने मुझे खुद से अलगाया ।

04- मेरी भाषा के लोग

मेरी भाषा के लोगमेरी सड़क के लोग हैंसड़क के लोग सारी दुनिया के लोग

पिछली रात मैंने एक सपना देखाकि दुनिया के सारे लोगएक बस में बैठे हैंऔर हिन्दी बोल रहे हैंफिर वह पीली-सी बसहवा में गायब हो गईऔर मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दीजो अन्तिम सिक्के की तरहहमेशा बच जाती है मेरे पासहर मुश्किल में

कहती वह कुछ नहींपर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभकि उसकी खाल पर चोटों केकितने निशान हैंकि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं कोदुखते हैं अक्सर कई विशेषणपर इन सबके बीचअसंख्य होठों परएक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !

तुम झाँक आओ सारे सरकारी कार्यालयपूछ लो मेज़ सेदीवारों से पूछ लोछान डालो फ़ाइलों के ऊँचे-ऊँचेमनहूस पहाड़कहीं मिलेगा ही नहींइसका एक भी अक्षरऔर यह नहीं जानती इसके लिएअगर ईश्वर को नहीं तो फिर किसे धन्यवाद दे !

मेरा अनुरोध है —भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —कि राज नहीं — भाषाभाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दोमेरी भाषा को ।

इसमें भरा हैपास-पड़ोस और दूर-दराज़ कीइतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्ककि मैं जब भी इसे बोलता हूँतो कहीं गहरेअरबी तुर्की बांग्ला तेलुगुयहाँ तक कि एक पत्ती केहिलने की आवाज़ भीसब बोलता हूँ ज़रा-ज़राजब बोलता हूँ हिंदी पर जब भी बोलता हूंयह लगता है —पूरे व्याकरण मेंएक कारक की बेचैनी हूँएक तद्भव का दुखतत्सम के पड़ोस में ।

05- चट्टान को तोड़ो वह सुन्दर हो जाएगी

चट्टान को तोड़ोवह सुन्दर हो जायेगीउसे तोड़ोवह और, और सुन्दर होती जायेगी

अब उसे उठालोरख लो कन्धे परले जाओ शहर या कस्बे मेंडाल दो किसी चौराहे परतेज़ धूप में तपने दो उसे

जब बच्चे हो जायेंगेउसमें अपने चेहरे तलाश करेंगेअब उसे फिर से उठाओअबकी ले जाओ उसे किसी नदी या समुद्र के किनारेछोड़ दो पानी मेंउस पर लिख दो वह नामजो तुम्हारे अन्दर गूँज रहा हैवह नाव बन जायेगी

अब उसे फिर से तोड़ोफिर से उसी जगह खड़ा करो चट्टान कोउसे फिर से उठाओडाल दो किसी नींव मेंकिसी टूटी हुई पुलिया के नीचेटिको दो उसेउसे रख दो किसी थके हुए आदमी के सिरहाने

अब लौट आओतुमने अपना काम पूरा कर लिया हैअगर कन्धे दुख रहे होंकोई बात नहींयक़ीन करो कन्धों परकन्धों के दुखने पर यक़ीन करो

यकीन करोऔर खोज लाओकोई नई चट्टान!

06- अकाल में सारस

अकाल में सारस केदारनाथ सिंह तीन बजे दिन मेंआ गए वेजब वे आएकिसी ने सोचा तक नहीं थाकि ऐसे भी आ सकते हैं सारस

एक के बाद एकवे झुंड के झुंडधीरे-धीरे आएधीरे-धीरे वे छा गएसारे आसमान मेंधीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गयासारा का सारा शहर

वे देर तक करते रहेशहर की परिक्रमादेर तक छतों और बारजों परउनके डैनों से झरती रहीधान की सूखीपत्तियों की गंध

अचानकएक बुढ़िया ने उन्हें देखाजरूर-जरूरवे पानी की तलाश में आए हैंउसने सोचा

वह रसोई में गईऔर आँगन के बीचोबीचलाकर रख दियाएक जल-भरा कटोरा

लेकिन सारसउसी तरह करते रहेशहर की परिक्रमान तो उन्होंने बुढ़िया को देखान जल भर कटोरे को

सारसों को तो पता तक नहीं थाकि नीचे रहते हैं लोगजो उन्हें कहते हैं सारस

पानी को खोजतेदूर-देसावर से आए थे वे

सो, उन्होंने गर्दन उठाईएक बार पीछे की ओर देखान जाने क्या था उस निगाह मेंदया कि घृणापर एक बार जाते-जातेउन्होंने शहर की ओर मुड़करदेखा जरूर

फिर हवा मेंअपने डैने पीटते हुएदूरियों में धीरे-धीरेखो गए सारस

07- पृथ्वी

ओ मेरी उदास पृथ्वी केदारनाथ सिंह 

घोड़े को चाहिए जईफुलसुँघनी को फूलटिटिहिरी को चमकता हुआ पानीबिच्छू को विषऔर मुझे ?

गाय को चाहिए बछड़ाबछड़े को दूधदूध को कटोराकटोरे को चाँदऔर मुझे ?मुखौटे को चेहराचेहरे को छिपने की जगहआँखों को आँखेंहाथों को हाथऔर मुझे ?ओ मेरी घूमती हुईउदास पृथ्वीमुझे सिर्फ तुम...तुम... तुम...

08- बाघ (2)

आज सुबह के अख़बार में एक छोटी-सी ख़बर थीकि पिछली रात शहर में आया था बाघ !किसी ने उसे देखा नहींअँधेरे में सुनी नहीं किसी ने उसके चलने की आवाज़गिरी नहीं थी किसी भी सड़क पर ख़ून की छोटी-सी एक बूँद भीपर सबको विश्वास हैकि सुबह के अख़बार मनें छपी हुई ख़बर ग़लत नहीं हो सकतीकि ज़रूर-ज़रूर पिछली रात शहर में आया था बाघ

सचाई यह है कि हम शक नहीं कर सकतेबाघ के आने पर मौसम जैसा हैऔर हवा जैसी बह रही हैउसमें कभी भी और कहीं भीआ सकता है बाघपर सवल यह हैकि आख़िर इतने दिनों बाद इस इतने बड़े शहर में क्यों आया था बाघ ?

क्या वह भूखा था ? बीमार था ? क्या शहर के बारे मेंबदल गए हैं उसके विचार ?

यह कितना अजीब हैकि वह आया उसने पूरे शहर को एक गहरे तिरस्कार और घृणा से देखा

और जो चीज़ जहाँ थीउसे वहीं छोड़कर चुप और विरक्तचला गया बहार !

सुबह की धूप में अपनी-अपनी चौखट पर सब चुप हैंपर मैं सुन रहा हूँकि सब बोल रहे हैं

पैरों से पूछ रहे हैं जूतेगरदन से पूछ रहे हैं बाल नखों से पूछ रहे हैं कंधेबदन से पूछ रही है खालकि कब आएगाफिर कब आएगा बाघ ?

09 - सन् 47 को याद करते हुए 

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंहगेहुँए नूर मियाँठिगने नूर मियाँरामगढ़ बाजार से सुरमा बेच करसबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँक्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंहतुम्हें याद है मदरसाइमली का पेड़इमामबाड़ा

तुम्हें याद है शुरू से अखिर तकउन्नीस का पहाड़ाक्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट परजोड़ घटा करयह निकाल सकते होकि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़करक्यों चले गए थे नूर मियाँक्या तुम्हें पता हैइस समय वे कहाँ हैंढाकाया मुल्तान मेंक्या तुम बता सकते होहर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में

तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंहक्या तुम्हारा गणित कमजोर है

10- बनारस

इस शहर में वसंतअचानक आता हैऔर जब आता है तो मैंने देखा हैलहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ सेउठता है धूल का एक बवंडरऔर इस महान पुराने शहर की जीभकिरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता हैजो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँआदमी दशाश्‍वमेध पर जाता हैऔर पाता है घाट का आखिरी पत्‍थरकुछ और मुलायम हो गया हैसीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों मेंएक अजीब सी नमी हैऔर एक अजीब सी चमक से भर उठा हैभिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन

तुमने कभी देखा हैखाली कटोरों में वसंत का उतरना!यह शहर इसी तरह खुलता हैइसी तरह भरताऔर खाली होता है यह शहर इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शवले जाते हैं कंधेअँधेरी गली सेचमकती हुई गंगा की तरफ़

इस शहर में धूलधीरे-धीरे उड़ती हैधीरे-धीरे चलते हैं लोगधीरे-धीरे बजते हैं घनटेशाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होनाधीरे-धीरे होने की सामूहिक लयदृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर कोइस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं हैकि हिलता नहीं है कुछ भीकि जो चीज़ जहाँ थीवहीं पर रखी हैकि गंगा वहीं हैकि वहीं पर बँधी है नाँवकि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँसैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझबिना किसी सूचना केघुस जाओ इस शहर मेंकभी आरती के आलोक मेंइसे अचानक देखोअद्भुत है इसकी बनावटयह आधा जल में हैआधा मंत्र मेंआधा फूल में है

आधा शव मेंआधा नींद में हैआधा शंख में अगर ध्‍यान से देखोतो यह आधा हैऔर आधा नहीं भी है

जो है वह खड़ा हैबिना किसी स्‍थंभ केजो नहीं है उसे थामें हैराख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभआग के स्‍थंभऔर पानी के स्‍थंभधुऍं के खुशबू केआदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ

किसी अलक्षित सूर्य कोदेता हुआ अर्घ्‍यशताब्दियों से इसी तरहगंगा के जल मेंअपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहरअपनी दूसरी टाँग सेबिलकुल बेखबर!

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