हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने में पराड़कर जी की बहुमूल्य देन, कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग

By कृपाशंकर चौबे | Published: November 16, 2020 01:16 PM2020-11-16T13:16:19+5:302020-11-16T13:19:01+5:30

‘आज’ के अलावा कई दूसरे समाचार पत्नों को भी पराड़करजी का संपादकीय संस्पर्श मिला था. वे 1906 में ‘हिंदी बंगवासी’ के सहायक संपादक होकर  कलकत्ता गए. छह महीने बाद हिंदी साप्ताहिक ‘हितवार्ता’ के संपादक हुए और चार वर्ष तक वहीं रहे. साथ ही बंगाल नेशनल कॉलेज में हिंदी और मराठी पढ़ाते थे.

Hindi language after giving valuable gift Baburao Vishnu Paradkar enriching Kripa Shankar Choubey's blog | हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने में पराड़कर जी की बहुमूल्य देन, कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग

लक्ष्मीशंकर व्यास ने अपनी किताब ‘पराड़कर जी और पत्नकारिता’ में एक स्वतंत्न अध्याय लिखा है जिसका शीर्षक है: ‘शब्द जो पराड़कर जी की देन हैं.’ (file photo)

Highlightsपराड़कर जी 1911 में ‘भारतमित्न’ के संयुक्त संपादक हुए जो उस समय साप्ताहिक से दैनिक हो गया था. 1916 में राजद्रोह के संदेह में वे गिरफ्तार होकर साढ़े तीन वर्ष के लिए नजरबंद किए गए. सन 1920 में नजरबंदी से छूटने पर वाराणसी आ गए.

हिंदी को जिन लोगों ने अपनी बहुमूल्य देन से समृद्ध किया है, उनमें बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का विशेष स्थान है.  ‘आज’ अखबार को राष्ट्रीय पहचान उसके मालिक बाबू शिवप्रसाद गुप्त के अलावा बाबूराव विष्णु पराड़कर  (16 नवंबर 1883-12 जनवरी 1955) के कारण मिली.

हालांकि ‘आज’ के अलावा कई दूसरे समाचार पत्नों को भी पराड़करजी का संपादकीय संस्पर्श मिला था. वे 1906 में ‘हिंदी बंगवासी’ के सहायक संपादक होकर  कलकत्ता गए. छह महीने बाद हिंदी साप्ताहिक ‘हितवार्ता’ के संपादक हुए और चार वर्ष तक वहीं रहे. साथ ही बंगाल नेशनल कॉलेज में हिंदी और मराठी पढ़ाते थे.

पराड़कर जी 1911 में ‘भारतमित्न’ के संयुक्त संपादक हुए जो उस समय साप्ताहिक से दैनिक हो गया था. 1916 में राजद्रोह के संदेह में वे गिरफ्तार होकर साढ़े तीन वर्ष के लिए नजरबंद किए गए. सन 1920 में नजरबंदी से छूटने पर वाराणसी आ गए. उसी वर्ष 5 सितंबर को दैनिक आज का प्रकाशन हुआ जिसकी रूपरेखा की तैयारी के समय से ही वे संबद्ध रहे.

पहले चार वर्ष तक संयुक्त संपादक और संपादक तथा प्रधान संपादक मृत्यु पर्यंत रहे. बीच के चार वर्षों को छोड़कर जब 1943 से 1947 तक वे ‘संसार’ के संपादक रहे. पराड़कर जी ने ‘आज’ के लिए वर्तनी के कुछ नियम स्थिर किए थे. उसमें मुख्य नियम था कि विभक्ति और प्रत्यय को साथ लिखा जाएगा, जैसे राष्ट्रपतिने देशवासियोंसे एकता बनाए रखनेकी अपीलकी. इस शीर्षक में राष्ट्रपति और ने, देशवासियों और से, रखने और की तथा अपील और की मिलाकर लिखे गए हैं. ‘आज’ की वर्तनी के मुताबिक आरोप किया जाता है, लगाया नहीं जाता.

भाषण भी किया जाता है, दिया नहीं जाता. पराड़कर जी ने कई नए शब्द भी चलाए. लक्ष्मीशंकर व्यास ने अपनी किताब ‘पराड़कर जी और पत्नकारिता’ में एक स्वतंत्न अध्याय लिखा है जिसका शीर्षक है: ‘शब्द जो पराड़कर जी की देन हैं.’ सात पृष्ठों के उस लेख की पहली ही पंक्ति है, ‘पराड़कर जी ने पत्नकारिता तथा साहित्य साधना की आधी शताब्दी में हिंदी भाषा को सैकड़ों नए शब्द दिए.’ उसी लेख में कहा गया है, ‘सर्वश्री’ शब्द पराड़कर जी की ही देन है. यह शब्द आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्ल ने स्वीकार कर लिया था और अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में उसका निरंतर प्रयोग किया है.

इस संबंध में संपादकाचार्य पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी का भी कथन है कि ‘सर्वश्री’ शब्द पराड़कर जी का ही चलाया हुआ है. इसी प्रकार ‘श्री’ शब्द का प्रयोग और व्यवहार तथा उसका व्यापक प्रचार करने का श्रेय पराड़कर जी को ही है. ‘मिस्टर’ शब्द के लिए ‘श्री’ का प्रयोग पराड़कर जी ने प्रचलित किया और आज के माध्यम से उन्हें इसमें सफलता भी मिली. इसी प्रकार ‘राष्ट्रपति’ शब्द भी उन्हीं की देन बताई जाती है जिसका प्रयोग देश के संविधान में विहित कर लिया गया है और जिसे सार्वदेशिक स्तर पर स्वीकार कर लिया गया है.

आधुनिक काल में अर्थशास्त्न का बहुप्रचलित शब्द ‘मुद्रास्फीति’ पराड़कर जी का ही चलाया हुआ है. इसी प्रकार लोकतंत्न, नौकरशाही, स्वराज्य, सुराज्य, वातावरण, वायुमंडल, कार्रवाई, वाग्यंत्न, अंतरराष्ट्रीय, चालू, परराष्ट्र आदि शब्दों के व्यापक प्रयोग तथा प्रचलन का श्रेय पराड़कर जी को है.

पत्नकार की न्यूनतम अर्हता के बारे में उन्होंने जो कहा था, वह भी ध्यान देने योग्य है. पराड़कर जी ने कहा था, ‘मेरे मत से संपादक में साहित्य और भाषा ज्ञान के अतिरिक्त भारत के इतिहास का सूक्ष्म और संसार के इतिहास का साधारण ज्ञान तथा समाज शास्त्न, राजनीति शास्त्न और अंतरराष्ट्रीय विधानों का साधारण ज्ञान होना आवश्यक है.

अर्थशास्त्न का वह पंडित न हो पर कम से कम भारतीय और प्रांतीय बजट समझने की योग्यता उसमें अवश्य होनी चाहिए.’ पराड़कर जी मूलत: मराठीभाषी थे. उनकी माता अन्नपूर्णाबाई और पिता विष्णु शास्त्नी महाराष्ट्र से आकर वाराणसी में बस गए थे. पराड़कर जी के पौत्न आलोक पराड़कर ने भी वृत्ति के रूप में हिंदी पत्नकारिता को अपनाया. वे भी हिंदी की सेवा कर रहे हैं.

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