ब्लॉग: सशर्त पुरस्कार देना गरिमा के अनुकूल नहीं
By विश्वनाथ सचदेव | Published: August 2, 2023 02:47 PM2023-08-02T14:47:12+5:302023-08-02T14:47:41+5:30
सम्मान को स्वीकारना या नकारना व्यक्ति का अधिकार है. सम्मान लौटाने का मतलब देशद्रोह समझ लेना भी उतना ही गलत है, जितना गलत यह मानना है कि किसी को सम्मानित करके कोई सरकार उस पर अनुग्रह कर रही है.
सन् 2015 की बात है. देश के कुछ साहित्यकारों-कलाकारों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता से दुखी होकर साहित्य अकादमी द्वारा दिए गए सम्मानों को लौटाने की घोषणा कर दी थी. यह रचनाकार एम. एम. कलबुर्गी, गोविंद पानसरे, दाभोलकर जैसे लेखकों की हत्या से आहत थे और इस बात से दुखी थे कि साहित्य अकादमी जैसी संस्था देश और समाज में फैली असहिष्णुता को लेकर चिंतित और परेशान क्यों नहीं है.
कुल मिलाकर 39 लेखकों ने सम्मान लौटा कर अपना क्षोभ व्यक्त किया था. उनके इस कदम को सरकार के विरुद्ध ‘गढ़ा हुआ विरोध’ अथवा ‘मैन्युफैक्चर्ड प्रोटेस्ट’ कह कर सरकार के पक्षधरों ने स्वतंत्र भारत में अपने ढंग के इस अनोखे विरोध को बदनाम करने की कोशिश की थी, पर रचनाकारों के इस कदम की गूंज दूर-दूर तक पहुंची थी. सरकार के समर्थकों ने अवॉर्ड लौटाने वाले रचनाकारों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ का नाम दिया. आज भी इस बात को गाहे-बगाहे दोहरा लिया जाता है.
भले ही अवार्ड वापसी को ‘राष्ट्र-विरोधी कृत्य’ कह कर इसे बदनाम करने अथवा महत्वहीन बताने की कोशिश हुई हो, पर आठ साल बाद सरकारी पुरस्कारों-सम्मानों के संदर्भ में नये नियम बनाने की सरकार की तैयारी इस बात का प्रमाण है कि इस घटना ने समूची व्यवस्था को कहीं भीतर ही हिला दिया था. संसद की परिवहन, पर्यटन और सांस्कृतिक समिति ने सरकार के सामने सुझाव रखा है कि सम्मान लौटाने के ऐसे कृत्य को देश-विरोधी कार्रवाई माना जाना चाहिए.
इस सिफारिश में यह भी कहा गया है कि सरकारी पुरस्कार पाने वाले रचनाकारों से इस आशय का शपथ-पत्र लिया जाए कि वे इसे लौटाने जैसी कार्रवाई कभी नहीं करेंगे. यह संयोग की बात है कि इस समय देश मणिपुर जैसे हालात से गुजर रहा है और संसद में, और सड़क पर भी, यह मुद्दा गरमाया हुआ है, इसलिए सरकारी सम्मानों के अपमान के नाम पर अवार्ड वापसी जैसे कृत्य से संबंधित इस सुझाव पर अपेक्षित चर्चा नहीं हो पा रही. लेकिन सरकारी सम्मानों को ‘राष्ट्रभक्ति’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ से जोड़कर देखने की यह मानसिकता जनतांत्रिक मूल्यों और विरोध करने के जनता के अधिकार का नकार ही है.
सम्मान को स्वीकारना या नकारना व्यक्ति का अधिकार है. सम्मान लौटाने का मतलब देशद्रोह समझ लेना भी उतना ही गलत है, जितना गलत यह मानना है कि किसी को सम्मानित करके कोई सरकार उस पर अनुग्रह कर रही है. जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि असहमति को सम्मान दिया जाए. उम्मीद की जानी चाहिए कि सम्मान कभी न लौटाने की शपथ जैसा बंधन देश और समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जाएगा.