गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग : शब्द, सत्य और राजनीति के झमेले में जाति
By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 5, 2024 10:38 AM2024-08-05T10:38:04+5:302024-08-05T10:39:00+5:30
सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी पर जातियां अलग-अलग पायदान पर स्थित होती हैं और सबका अपना-अपना दायरा होता है. आज जाति की शक्ति की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता, खास तौर पर राजनीति के क्षेत्र में तो ऐसा सोचना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है.
यह सच है कि शब्द अपने प्रयोग से ही अर्थवान होते हैं पर यह भी सच है कि अर्थ शब्दों के प्रयोक्ता के मंतव्य के अधीन होते हैं इसलिए शब्द के अर्थ की स्थिरता निरपेक्ष नहीं होती. ‘जाति’ शब्द अर्थ की अस्थिरता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है. वैसे तो जाति शब्द किसी चीज की प्रकृति, समुदाय या श्रेणी के लिए प्रयुक्त होता है परंतु भारतीय समाज में यह शब्द समुदायों के नाम और पहचान का द्योतक बन चुका है. इसको लेकर समुदायों के बीच पारस्परिक सामाजिक संबंध बनते-बिगड़ते हैं. जातियों से अस्मिताओं का निर्माण किया जाता है और उनसे बनी पहचान भारतीय सामाजिक जीवन का एक बड़ा सत्य है. जाति के साथ तादात्मीकरण व्यक्ति और समुदाय दोनों के लिए एक नियमबद्धता लाने वाला उपाय बन जाता है. एक जाति विशेष के लोग आपस में निकट आते हैं और दूसरी जाति से अपने को अलग करते हैं.
सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी पर जातियां अलग-अलग पायदान पर स्थित होती हैं और सबका अपना-अपना दायरा होता है. आज जाति की शक्ति की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता, खास तौर पर राजनीति के क्षेत्र में तो ऐसा सोचना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. हर कोई अपनी जाति से जुड़ कर या उसकी सदस्यता से अतिरिक्त ऊर्जा और बल का अनुभव करता है. जन्मसिद्ध होने के कारण जाति की सदस्यता व्यक्ति को स्वत: मिल जाती है और तब तक चलती रहती है जब तक उसे जाति से बहिष्कृत ( कुजात! ) नहीं कर दिया जाता. जन्मजात जाति व्यक्ति के साथ जीवनपर्यंत जुड़ी रहती है और अनेक औपचारिक तथा अनौपचारिक विषयों में हमारी गतिविधि को निर्धारित करती है.
आज जाति व्यक्तिगत जीवन में एक संवेदनशील विषय बन चुका है. राजनीति के क्षेत्र में यह एक बेहद उपजाऊ सरोकार बन चुका है जिसे मुख्य आधार बना कर विभिन्न क्षेत्रों में चुनाव लड़े-लड़ाए जाते हैं और सरकारों का गठन और विघटन होता है. जाति को लेकर राजनीतिज्ञों की मुश्किल इसलिए बढ़ जाती है कि वे भेदभाव के अमानवीय आधार के रूप में इसके विरोध और खंडन में खड़े होते हैं जबकि खुद उनका राजनीतिक अस्तित्व जाति पर ही टिका होता है. उसी के समर्थन से वे चुने जाते हैं. वे बड़ी दुविधा में रहते हैं और कभी जाति का समर्थन तो कभी खंडन करते हैं.
आज जाति और उपजाति सामाजिक स्तरीकरण और राजनैतिक दांव-पेंच का प्रबल आधार बन गई है. जाति की नई-नई श्रेणियां बनाई गईं और बनाई जा रही हैं. जातीयता और जातिवाद की भावना को जगा कर और एक-दूसरे को ऊंचा-नीचा दिखाकर सामूहिक जीवन पर अधिकार स्थापित करना राजनेताओं की नीति बनती गई है. आज की स्थिति में जाति का खंडन और मंडन दोनों साथ-साथ चल रहा है क्योंकि जातीयता की परिपुष्टि करना वोट बैंक का आधार है.