अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः कमजोर जातियां कैसे देखेंगी इस आरक्षण को?

By अभय कुमार दुबे | Published: January 15, 2019 08:22 PM2019-01-15T20:22:40+5:302019-01-15T20:22:40+5:30

भाजपा के सरबराह अभी इस बात से सचेत नहीं हैं कि इस फैसले के पीछे एक और पूर्व-धारणा काम कर रही है. वे मान कर चल रहे हैं कि पार्टी ने पिछड़े वर्गो और अनुसूचित जातियों के लिए काफी कुछ कर दिया है, इसलिए वे इस आरक्षण के खिलाफ कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे.

general category reservation: how to see weaker caste this reservation | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः कमजोर जातियां कैसे देखेंगी इस आरक्षण को?

अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः कमजोर जातियां कैसे देखेंगी इस आरक्षण को?

एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के बाद जब मोदी और उनके रणनीतिकारों को पता चला कि उनके इस कदम से भाजपा का ऊंची जाति का जनाधार नाखुश हो सकता है, तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि वह थोड़ा-बहुत नाराज हो सकता है, लेकिन अंतत: वह पार्टी को ही वोट देगा क्योंकि उसके पास कोई और चारा नहीं है. यही थी वह पूर्व-धारणा जिसके आधार पर भाजपा ने राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान अपने इन पारंपरिक समर्थकों की नाराजगी की कोई परवाह नहीं की. लेकिन विधानसभा के नतीजों के आईने में जब उन्हें दिखाई पड़ा कि पिछले पैंतीस साल से निष्ठापूर्वक भाजपा को वोट देने वाली ऊंची जातियां भाजपा का विकल्प तलाशने के रास्ते पर चल पड़ी हैं तो उनका माथा ठनका. 

भले ही वे किसी गैर-भाजपा पार्टी को वोट देना पसंद न करें, पर वे मतदान के दिन घर तो बैठ ही सकती हैं और वोट डालने निकलने पर नोटा का बटन तो दबा ही सकती हैं. दोनों ही सूरतों में नुकसान भाजपा का ही होगा. इसी समझ का परिणाम है सामान्य श्रेणी के ‘गरीबों’ को दस फीसदी का आरक्षण. इस तरह भाजपा ने स्वीकार कर लिया कि उसकी वह पूर्व-धारणा गलत थी. दरअसल, ऊंची जातियों की भाजपा से नाराजगी का कारण केवल एससी-एसटी एक्ट पर उसका रवैया नहीं है. भाजपा का यह परंपरागत वोट बैंक पिछले पांच साल से देख रहा है कि मोदी के नेतृत्व में पूरी पार्टी का जमकर ओबीसीकरण हुआ है. पता नहीं ऊंची जातियां इससे कितनी खुश होंगी, लेकिन इसका विपरीत असर उन पिछड़े और दलित समुदायों पर पड़ सकता है जो भाजपा के साथ हाल ही में जुड़े थे. 

भाजपा के सरबराह अभी इस बात से सचेत नहीं हैं कि इस फैसले के पीछे एक और पूर्व-धारणा काम कर रही है. वे मान कर चल रहे हैं कि पार्टी ने पिछड़े वर्गो और अनुसूचित जातियों के लिए काफी कुछ कर दिया है, इसलिए वे इस आरक्षण के खिलाफ कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे. प्रश्न यह है कि क्या भाजपा की यह पूर्व-धारणा सही साबित होगी? इस सवाल का जवाब पता लगाने के लिए इतिहास में जाना जरूरी है. 

1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण दिया था. उस समय कई प्रेक्षकों को लगा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री ने ऐसा करके स्वयं को इन जातियों का सर्वोच्च और सबसे प्यारा नेता बना लिया है. मुङो याद है कि सूर्यकांत बाली ने एक लेख लिखा था. इसका शीर्षक था ‘एक व्यक्ति के बढ़ते हुए वोट’. लेकिन इतिहास हमें यह भी बताता है कि जिस व्यक्ति के वोट बढ़ते हुए देखे जा रहे थे, बहुत जल्दी ही उसकी राजनीति का दिवाला निकल गया. 

आज उन्हें कोई याद भी नहीं करता, और वोट जिनके बढ़े वे कोई और ही साबित हुए. विश्वनाथ प्रताप सिंह के बजाय वोट बढ़े मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव वगैरह के. यानी जरूरी नहीं कि वोट उसी के बढ़ें जिसने आरक्षण दिया हो. दूसरे, पिछड़े वर्ग को दिए आरक्षण के विरोध में ऊंची जातियों ने हिंसक प्रतिक्रिया की थी. आत्मदाह होने लगे थे. इसलिए यह मान लेना उचित नहीं होगा कि अब पिछड़ी और दलित जातियां कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगी और चुप बैठी रहेंगी. 

भाजपा के प्रवक्ताओं का तर्क है कि उनकी सरकार ने पिछड़ों और दलितों का आरक्षण कम नहीं किया है, इसलिए उनके मानस पर इस कदम का कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा. यह तर्क आरक्षण के साथ जुड़े हुए विशेष अवसर के सिद्धांत की अनदेखी करता है. पिछड़ों और दलितों को यह विशेष अवसर इसलिए मिलता है कि उन्होंने सदियों से एक खास तरह की उपेक्षा और तिरस्कार ङोला है जिसका परिणाम उनकी गरीबी और वंचना है. इसके उलट ऊंची जातियों की दरिद्रता अर्थव्यवस्था की पिछले पच्चीस-तीस साल में जमा हुई विफलता का परिणाम है. उनकी निगाह में यह नया आरक्षण साबित करता है कि समाज पर अभी भी ऊंची जातियों का प्रभुत्व है. 

आरक्षण जीतने के लिए उन्हें केवल तीन दशकों की दरिद्रता की आवश्यकता पड़ी, जबकि पिछड़ों-दलितों को इसके लिए सदियों-सदियों वह सहन करना पड़ा जो ऊंची जातियों को आज भी सहन नहीं करना पड़ता है. फिर कमजोर जातियां यह तो देख ही रही हैं कि यह नया आरक्षण उन लोगों के लिए भी उपलब्ध होगा जो आयकर की निम्नतम सीमा ढाई लाख से साढ़े पांच लाख रुपए ज्यादा (कुल आठ लाख) कमा रहे हैं. 

वे इस निष्कर्ष पर पहुंच सकती हैं कि इस आरक्षण का किरदार ऊंची जातियों के मध्यवर्ग को (जो पहले से ही आर्थिक रूप से खुशहाल हैं) दी गई एक रिश्वत जैसा है. जाहिर है कि उनके मानस पर विपरीत असर अवश्य पड़ेगा. अगर चुनाव सिर पर न होते तो हो सकता है कि यह रोष सड़कों पर उबल पड़ता. अब इसकी अभिव्यक्ति चुनाव के दौरान मतदान में अवश्य दिखाई पड़ सकती है.

Web Title: general category reservation: how to see weaker caste this reservation

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