हेमधर शर्मा ब्लॉग: दुनिया को हिंसा और रक्तपात से कब मिलेगी आजादी ?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: October 2, 2024 01:17 PM2024-10-02T13:17:00+5:302024-10-02T13:17:04+5:30
इस मार-काट के बीच भी देश आजादी का जश्न मनाने में जुटा था और गांधीजी नोआखाली के कंटकाकीर्ण रास्तों पर नंगे पैर चलते हुए, एक-दूसरे के खून की प्यासी सांप्रदायिक आग को बुझाने में जुटे हुए थे।
आज हम अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती मना रहे हैं। उन्हीं गांधी की, जिनके बारे में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कभी कहा था कि ‘आने वाली पीढ़ियां शायद इस बात पर विश्वास नहीं करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ ऐसा कोई व्यक्ति कभी इस धरती पर आया था’।
गांधी जैसी अपार लोकप्रियता विरले ही किसी को मिलती है। परंतु उनके जमाने में भी उनके आदर्शों पर चलने वाले कितने लोग थे? खासकर देश को आजादी मिलने की सम्भावना जैसे-जैसे प्रबल होती गई, वैसे-वैसे उनके दिखाए रास्ते से छिटकने वालों की संख्या भी बढ़ती चली गई थी। यहां तक कि जिस कांग्रेस के जरिये उन्होंने आजादी की पूरी लड़ाई लड़ी, उसके कई नेता भी आजादी निकट आने पर उनको पहले जैसी तवज्जो नहीं देते थे। इसे इसी एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि गांधीजी ने कहा था कि देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा, लेकिन बंटवारे में शामिल नेताओं ने, ऐसा करते वक्त उन्हें जानकारी तक देना जरूरी नहीं समझा था।
बेशक, गांधीजी कभी नेताओं पर निर्भर नहीं रहे, लेकिन जो जनता कभी उनके पीछे पागल रहती थी, उसने भी उनकी बात सुनना बंद कर दिया था। आखिर जो लोग लाठी-डंडे तो क्या, गोलियां खाकर भी अंग्रेजों के सामने गांधीजी द्वारा सिखाए गए अहिंसक ढंग से डटे रहते थे, आजादी निकट आने पर वे सांप्रदायिक दंगों में अपने ही देशवासियों के खून के प्यासे क्यों हो उठे थे? इस मार-काट के बीच भी देश आजादी का जश्न मनाने में जुटा था और गांधीजी नोआखाली के कंटकाकीर्ण रास्तों पर नंगे पैर चलते हुए, एक-दूसरे के खून की प्यासी सांप्रदायिक आग को बुझाने में जुटे हुए थे।
कभी 125 वर्षों तक जीने की इच्छा रखने वाले बापू को अपने अंतिम जन्मदिन पर कहना पड़ा कि अब वे और जीना नहीं चाहते। तो क्या बापू का हमने सदा इस्तेमाल करने की ही कोशिश की? जब हमें लगा कि गांधीजी सत्याग्रह के माध्यम से आजादी दिला सकते हैं तो हमने उनके सत्य, अहिंसा जैसे गुणों को भी हथियार के रूप में अपना लिया था। 1920 में शुरू हुए असहयोग आंदोलन में पूरा देश जिस तरह आंदोलित हो उठा था, उससे सबको आजादी बहुत निकट नजर आने लगी थी।
लेकिन 1922 में चौरीचौरा में सिपाहियों को जलाए जाने की लोमहर्षक घटना में गांधीजी ने जिस भयावह भविष्य की झलक देखी, उससे वे कांप उठे और आंदोलन को अपनी ‘हिमालय जैसी भूल’ बताते हुए तुरंत स्थगित कर दिया। तब बहुत से नेता गांधीजी से नाराज हुए थे, लेकिन गांधीजी को खूनी आजादी नहीं चाहिए थी। इसीलिए वे जनता को शिक्षित करने के लम्बे व श्रमसाध्य रचनात्मक कार्यों में जुट गए।
परंतु हमने उन्हें कितना प्रतिसाद दिया? समाजसेवा के ही चलते वे अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दे पाए थे और इसका खामियाजा उन्हें अपने बड़े बेटे हरिलाल की त्रासदी के रूप में जीवनभर भुगतना पड़ा. किंतु हमने उनके साथ कैसा सलूक किया? शायद हमने जान लिया था कि वे जिस तरह अंग्रेजों की मनमानी की राह में बाधक थे, आजादी के बाद उसी तरह हमारी स्वच्छंदता के भी आड़े आएंगे। गोडसे तो एक बहाना था, गांधीजी की शायद अब हमें जरूरत ही नहीं रह गई थी, क्योंकि उनके जरिये हम जो आजादी पाना चाहते थे, वह मिल गई थी।
आजादी के पहले गांधीजी के सत्य-अहिंसा को अपनाना हमारी मजबूरी थी। आजादी के बाद भी अपनाते, तब वह हमारी मजबूती बनती। अब हम उनकी राह पर चलते हुए, देश-दुनिया को हिंसा और रक्तपात से आजादी दिलाकर क्या यह साबित करेंगे कि मजबूरी नहीं, मजबूती का नाम महात्मा गांधी है?