ब्लॉग: आंखें खुद नम हो जाती हैं राजघाट में
By विवेक शुक्ला | Published: October 2, 2024 12:53 PM2024-10-02T12:53:46+5:302024-10-02T12:54:17+5:30
हालांकि सरकार की चाहत थी कि वे किसी सरकारी गेस्ट हाउस में ठहरें, लेकिन वे नहीं माने। तब तक राजघाट एक बंजर स्थान से अधिक कुछ नहीं था. राजघाट को विकसित करने की योजना बन रही थी।
महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर आज 2 अक्तूबर को दर्जनों इस तरह के लोग मिलेंगे जो यहां दशकों से हरेक गांधी जयंती और बलिदान दिवस पर आते हैं । राजघाट पर 31 जनवरी, 1948 के बाद से लाखों अनाम और प्रख्यात लोग आ रहे हैं। मार्टिन लूथर किंग 11 फरवरी, 1959 को राजघाट आए। तब तक राजघाट को लैंडस्केप आर्किटेक्ट वानू जी। भूपा की निगरानी में विकसित किया जा चुका था।
उस दिन राजघाट पर सुबह से ही कई गांधीवादी पहुंच गए थे। सबको इंतजार था उस शख्सियत के दर्शन करने का जिसे दुनिया अश्वेत गांधी के रूप में जानने लगी थी। करीब साढ़े बारह बजे राजघाट पर मार्टिन लूथर किंग आए। उनके साथ उनकी पत्नी कोरेटा किंग भी थीं। किंग जैसे ही गांधीजी की समाधि के आगे झुककर खड़े हुए तो उनकी आंखें छलकने लगीं। वे करीब पंद्रह मिनट तक राजघाट पर खड़े रहे और बीच-बीच में जेब से रूमाल निकाल कर अपनी आंखों को पोंछ लेते।
आचार्य विनोबा भावे 7 सितंबर, 1951 को राजघाट आए थे। वे जब इधर आए तब देश में पहले लोकसभा चुनाव का माहौल था। उस दौरान विनोबा भावे मौजूदा तेलंगाना में थे। वे भूदान आंदोलन शुरू कर चुके थे। ये जानकारी नेहरूजी को पता चली तो उन्होंने विनोबा भावे से तुरंत दिल्ली आने का आग्रह किया ताकि गांवों के विकास और उन्हें स्वावलंबी बनाने पर बात हो सके। यह बात जुलाई, 1951 की है। विनोबा भावे के लिए विशेष विमान की व्यवस्था हुई। पर उन्होंने विनम्रता से कह दिया कि वे पदयात्रा करके दिल्ली पहुंच रहे हैं।
अब विनोबा भावे सड़क मार्ग से दिल्ली के लिए निकल पड़े अपने करीब 75 साथियों के साथ। वे सितंबर के महीने में दिल्ली में आ गए और उन्होंने राजघाट परिसर में डेरा जमा लिया। हालांकि सरकार की चाहत थी कि वे किसी सरकारी गेस्ट हाउस में ठहरें, लेकिन वे नहीं माने। तब तक राजघाट एक बंजर स्थान से अधिक कुछ नहीं था. राजघाट को विकसित करने की योजना बन रही थी।
खैर, विनोबा भावे गांधीजी के अंत्येष्टि स्थल के ठीक सामने बनी झोपड़ी में रुके. विनोबा भावे के राजघाट पर होने की खबर मिलते ही दिल्ली और इसके आसपास के सैकड़ों लोग रोज उनसे मिलने आने लगे। दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश बताते थे कि कई लोग विनोबा भावे से लिपटकर भावुक होकर रोने लगते थे। विनोबा भावे राजघाट में 11 दिनों तक रुके। विनोबा भावे उनकी पीठ थपथपाकर विदा करते। दरअसल राजघाट पर आने वाले बहुत सारे लोगों की आंखें नम होने लगती हैं जब वे बापू को श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं। ये स्वत: स्फूर्त होने लगता है।
अब 88 साल की कात्सू सान को ही लें। वो गुजरे 50-55 सालों से राजघाट पर दो अक्तूबर तथा 30 जनवरी को होने वाली सर्वधर्म प्रार्थना सभाओं में बौद्ध धर्म का प्रतिनिधित्व करती हैं। कात्सू सान कहती हैं कि राजघाट पर आकर कुछ इस तरह का भाव मन में आता है कि आप अपने अभिभावक से एक लंबे अंतराल के बाद मिल रहे हैं.। इसलिए यहां बहुत सारे लोगों की आंखें भीग जाती हैं।