ब्लॉग: अपने पारदर्शी जीवन से प्रेरणा देते हैं बापू
By गिरीश्वर मिश्र | Published: October 2, 2024 11:58 AM2024-10-02T11:58:18+5:302024-10-02T11:58:22+5:30
उनकी सोच में एक विकेन्द्रीकृत सत्ता संरचना वाला भारत था। वे गांवों को समर्थ और समृद्ध बनाने के लिए चिंतित थे।
महात्मा गांधी का जन्म उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ था, आधी बीसवीं सदी तक के दौरान वे भारतीय समाज और राजनीति की धुरी बन गए और अब इक्कीसवीं सदी में हम सब उनके मिथक से रूबरू हो रहे हैं। विश्वव्यापी अंग्रेजी साम्राज्य से अहिंसक लड़ाई के साथ उनका स्वाधीन भारत का स्वप्न सत्य हुआ।
देश में रचनात्मक बदलाव के लिए वे सबको साथ लेकर चलते रहे। उनकी स्वीकार्यता का दायरा आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक यानी जीवन के सभी क्षेत्रों में निरंतर बढ़ता गया। संयम और आत्म-बल के साथ कर्मवीर गांधी ने जो ठाना उसे पूरा करने के लिए सर्वस्व लगा दिया। समाज के स्तर पर मानव कर्तृत्व की विरल गाथा बना उनका निजी जीवन पीड़ा, संघर्ष और अनिश्चय से भरा था।
देश के लिए समर्पण की मिसाल बने गांधीजी अंतिम जन की मानवीय गरिमा की रक्षा के लिए मोर्चों पर डटे रहे। वे देश के विभाजन और आजादी के साथ शुरू हुई हिंसा से क्षुब्ध और दुखी थे। बंगाल में नोआखाली से लौट दिल्ली में दंगापीड़ितों की सेवा सुश्रूषा में जुट गए। विभाजन की विभीषिका बड़ी दारुण थी और विचलित तथा हताश गांधीजी ने स्वतंत्र भारत में अपने पहले जन्मदिन यानी 2 अक्तूबर 1947 को दुखी होकर कहा था कि वे अब जीना नहीं चाहते और विधि का विधान यह हुआ कि वह सचमुच उनका आखिरी जन्मदिन सिद्ध हुआ।
30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में उनकी हत्या उस समय हो गई जब वे संध्या काल की प्रार्थना करने जा रहे थे। गौरतलब है कि गांधीजी स्वतंत्र भारत में करीब पांच महीने जीवित रहे थे और इस बीच यह बूढ़ा सेनानी स्वप्न-भंग से गुजर रहा था।अब कोई उनकी सुन नहीं रहा था। ये दिन उनके लिए बड़े तकलीफदेह थे।
गांधीजी ने अपने जीवन की कथा को पारदर्शी बनाए रखा। ‘सत्य’ और ‘नैतिकता’ से जूझती इस कथा को उन्होंने ‘एक खुली किताब’ कहा। उनका साहस ही था कि वह कह सके कि ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।’ प्रिय-अप्रिय, अच्छे-बुरे हर पहलू को उन्होंने सबसे साझा किया। वे सही अर्थों में सत्य के पुजारी थे और जो भी है वह सत्य है इसलिए उसे झूठ के सहारे छिपाना अपराध ही होता।
सत्य पर उनका भरोसा बढ़ता गया और वे कथनी और करनी में एकता लाने में लगातार जुटे रहे. तभी वह पहनावे, खानपान और मेल मिलाप आदि सब में सरल भारतीय जीवन शैली को अपना सके। वे प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरते रहे।
विचार को कर्म में तब्दील करने पर जोर देने वाले गांधीजी परिवर्तन चाहने वाले को खुद अपने में बदलाव लाने के लिए कहते हैं। यह खुद उनकी अपनी जिंदगी की सीख थी। बहुत हद तक प्रयासपूर्वक संयमित जीवन जीते हुए वह जगत की नियमबद्धता में प्रकट हो रहे परमात्मा में आस्था और विश्वास रखते थे। चूंकि नजरिये स्वाभाविक रूप से भिन्न होते हैं, विविधता सहज संभाव्य होती है। गैर-जानकारी में लोग अपने से अलग दूसरी दृष्टियों को गलत या हीन ठहराने लगते हैं.।
गांधीजी अपनी प्रार्थना सभा में सभी प्रमुख धर्मों की प्रार्थनाओं को शामिल करते थे। वे मानते थे कि सभी एक ही तत्व से बने हैं इसलिए कोई अछूत नहीं और किसी का भी स्वामित्व नहीं। सभी ट्रस्टी हैं इसलिए (अपना हक न जमाते हुए) त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए।
गांधीजी धैर्य और दृढ़ता के साथ सत्य (ईश्वर), अहिंसा (प्रेम) और अपरिग्रह (जरूरत भर संग्रह) जैसे विचारों को अमली जामा पहनाते रहे और दैनंदिन जीवन में शामिल करते रहे। इस दृष्टि से उनकी उर्वर मानसिकता और सृजनशीलता असंदिग्ध है। भारत और विदेश में हो रहे अनुभवों को समेटते और पचाते हुए गांधीजी खुले मन से मानवीय चेतना के आत्म-बोध को रचते रहे।
कई अर्थों में समकालीनों से अलग हटकर गांधीजी ने अपना रास्ता बनाया और उस पर चलने की तैयारी की थी और जोखिम उठाकर भी उस पर चलते रहे। गांधीजी देश के लंबे स्वतंत्रता-संग्राम में केंद्रबिंदु रहे। इसके पहले दक्षिण अफ्रीका के दो दशक की अवधि सामाजिक–राजनैतिक कार्यकलाप में बीती थी जिनमें नस्लवाद और साम्राज्यवाद का तीव्र विरोध शामिल था।
उन्होंने भारतीय समुदाय के साथ काम करते हुए संघर्ष की शक्ति को जाना पहचाना। आत्म-विश्वास से भरे गांधीजी ने अखबार निकालने के साथ सामाजिक चेतना के लिए प्रयास किए। उनका निजी अध्यवसाय भी चलता रहा और मानव स्वभाव की गहनता को समझते रहे। 1915 में भारत लौटने पर वे एक सजग-सशक्त सत्याग्रही और नेतृत्व के लिए प्रस्तुत थे। स्थानीयता पर जोर देते हुए वैश्विक मानव-बोध के पक्षधर गांधीजी अपनी सभ्यता की खूबियों के साथ उसकी कमियों को भी स्वीकार करते हैं। वे स्वदेश, स्वभाषा और स्वराज के खास तौर पर हिमायती हैं।
वे ऐसे स्वराज की कल्पना करते हैं जिसमें समाज के अंतिम जन की आवाज भी मायने रखती है। गांधीजी के सपनों के भारत में यहां का पूरा लोक-जीवन समाया था। उनकी सोच में एक विकेन्द्रीकृत सत्ता संरचना वाला भारत था। वे गांवों को समर्थ और समृद्ध बनाने के लिए चिंतित थे। इसलिए वे स्थानीय स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती और आर्थिक जीवन को सशक्त बानाने के पक्षधर थे।
वे एक आदर्शवादी व्यावहारिक देश-सेवक की हैसियत से एक सर्वसमावेशी व्यवस्था को विकल्प के रूप में आगे बढ़ा रहे थे। गांधी होने का वास्तविक अर्थ आचरण और विचार का एक गतिशील पुंज है जो आज भी अंधेरे में दीपक की भांति रोशनी बिखेरता है।