घट रहे हैं जंगल, नहीं घट रही उदासीनता

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 10, 2025 06:34 IST2025-01-10T06:34:30+5:302025-01-10T06:34:51+5:30

अपने एकमात्र लक्ष्य की परवाह किए बिना किसी भी कीमत पर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को सुविधाजनक बनाना अब इस मंत्रालय की पहचान बन चुकी है.

Forests are decreasing indifference is not decreasing | घट रहे हैं जंगल, नहीं घट रही उदासीनता

घट रहे हैं जंगल, नहीं घट रही उदासीनता

अभिलाष खांडेकर

कुछ दिन पहले समाप्त हुए वर्ष में वनों के मोर्चे पर निराशाजनक घटनाक्रम सामने आया है. द्विवार्षिक भारत वन स्थिति रिपोर्ट (आईएसएफआर) 2023, जिसका वन अधिकारियों, पर्यावरणविदों, वनस्पति विज्ञानियों और वन्यजीव प्रेमियों सहित अन्य जागरूक नागरिकों द्वारा बेसब्री से इंतजार किया जाता है, हमें बताती है कि भारत में लगभग दो वर्षों में 3,656 वर्ग किलोमीटर का घना जंगल पूरी तरह से नष्ट हो गया है.

पिछली रिपोर्ट 2021 में जारी की गई थी, लेकिन उसके बाद सरकार, यानी वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पूरे भारत में वन क्षेत्र में 156 वर्ग किलोमीटर की मामूली वृद्धि की सूचना दी है. कहा जा सकता है कि यह शुद्ध लाभ है. यह दुःखद है कि वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को अब ‘वन मंजूरी मंत्रालय’ के रूप में देखा जाने लगा है जिसका उद्देश्य वनों का संरक्षण रहा है. अपने एकमात्र लक्ष्य की परवाह किए बिना किसी भी कीमत पर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को सुविधाजनक बनाना अब इस मंत्रालय की पहचान बन चुकी है.

पिछले साल के अंत में देहरादून में मंत्रालय द्वारा जारी इस शोधपूर्ण दस्तावेज के माध्यम से सरकार ने दावा किया है कि कुल मिलाकर 1,445 वर्ग किलोमीटर वन और वृक्ष क्षेत्र में वृद्धि हुई है. मंत्रीजी  ने इन आंकड़ों पर ‘खुशी’ जताई, लेकिन जो जंगल खत्म हो गया उस पर कोई दुःख नहीं जताया.

भारत में जैसा कि कुछ लोग ठीक ही मानते हैं, पिछले कुछ सालों में सरकारी अधिकारी और मंत्री सच बोलने से कतराते रहे हैं. गरीबी के आंकड़ों को याद करें; या स्मार्ट सिटी मिशन की ‘उपलब्धियों’ या जल जीवन मिशन की प्रगति को. जन कल्याण के बारे में अधिकांश प्रमुख आंकड़ों को विषय विशेषज्ञों द्वारा चुनौती दी गई है, हालांकि एक शक्तिशाली सरकार के डर से नपे-तुले स्वर में ही.

इसके आलोक में, इस नवीनतम वन आवरण रिपोर्ट को देखा जाना चाहिए और अंशत: ही विश्वास करना चाहिए. भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) लगातार ऐसी महत्वपूर्ण रिपोर्टें प्रकाशित कर रहा है जो सीधे तौर पर देश के पर्यावरण की स्थिति को दर्शाती हैं. पेड़ पर्यावरण को स्वच्छ बनाते हैं, गर्मियों में छाया प्रदान करते हैं, असंख्य पक्षियों, मधुमक्खियों, कीड़ों और अन्य वन्यजीवों को आसरा देते हैं और वे पीने के पानी का भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं.

यदि घने जंगल कम हो रहे हैं तो यह हम सभी के लिए, यहां तक कि सरकारों के लिए भी, बड़ी चिंता का विषय है.
अधिकारियों और मंत्रियों के लिए पैसा दिलाने का आसान स्रोत बनने वाली विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के कारण पूरे देश में लगभग हर दिन लाखों पेड़ काटे जा रहे हैं - जिसके सभी भारतीय गवाह हैं. कैम्पा (सीएएमपीए) योजना लगभग भुला दी गई है. फिर कोई कैसे विश्वास कर सकता है कि 2021 और 2023 के बीच वन क्षेत्र 1,289 वर्ग किलोमीटर बढ़ गया होगा?

शहरों में, पुणे और बेंगलुरु; भोपाल और इंदौर; दिल्ली और मुंबई से प्रतिदिन पेड़ काटे जाने की घटनाएं सामने आ रही हैं. इस पर कोई रोक नहीं है. समृद्ध शहरी जैव विविधता के नुकसान को रोकने के लिए कोई कानून पर्याप्त नहीं दिखता है. जैव विविधता संरक्षण हेतु बने सरकारी संगठन कमजोर हैं. फिर भी जनता को भव्य आंकड़ों के माध्यम से हरियाली की तस्वीर दिखाने के लिए बड़े-बड़े संदिग्ध दावे किए जा रहे हैं. वृक्ष प्रेमी समूहों, वानिकी विशेषज्ञों या वनस्पति विज्ञानियों को मिलकर इसकी जांच करनी चाहिए और हमें वास्तविकता दिखानी चाहिए कि वन क्षेत्र वाकई बढ़ा है या घटा है?

मध्य प्रदेश और कर्नाटक (बड़े राज्य) सहित नगालैंड व लद्दाख जैसे राज्यों ने जंगलों का बड़ा हिस्सा खो दिया है. मध्य प्रदेश, जहां कई राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य हैं और जहां बाघों व तेंदुओं की संख्या सबसे ज्यादा है, में 612 वर्ग किलोमीटर का नुकसान हुआ है और कर्नाटक, जो एक और बाघ-बहुल राज्य है, में 460 वर्ग किलोमीटर तथा नगालैंड व लद्दाख में क्रमशः 125 और 160 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र की कमी आई है. वन क्षेत्र बढ़ने वाले राज्यों में शामिल हैं : छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान.

लेकिन क्या यह जश्न मनाने का समय है? संयोग से, वर्ष 2024 ही था जब भारतीय मौसम विभाग ने व्यापक रूप से बताया कि 110 साल पहले रिकॉर्ड रखना शुरू होने के बाद से यह सबसे गर्म साल रहा. क्या यह मौत की घंटी नहीं है? जलवायु बदल चुकी है, मंत्रालय को यह समझना चाहिए. 2023 की वन रिपोर्ट कहती है कि बहुत घने जंगल और मध्यम घने जंगल खत्म हो चुके हैं और ये सभी गैर वन क्षेत्र बन गए हैं. क्या सरकार को इसके लिए जवाबदेह नहीं बनाया जाना चाहिए? भारत में केवल 21.76 प्रतिशत भूमि में वन बचे हैं, जबकि लंबे समय से यह माना जाता रहा है कि विभिन्न प्रकार के वनों के अंतर्गत 33 प्रतिशत भूमि क्षेत्र होना चाहिए.

आर्थिक विकास में भारत उन्नति की ओर अग्रसर है और यही अर्थव्यवस्था भारत की प्राकृतिक संपदा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है. इसमें कोई संतुलन नहीं दिखता. 2025 वन आवरण की रिपोर्ट जब 2027 में आएगी, तब तक 21 प्रतिशत का यह आंकड़ा और भी कम हो जाएगा.

गर्मी की मार झेलने वाले लोग गरीब हैं, अमीर नहीं. वे असहाय लोग हैं जो पेड़ों और जंगलों की सुरक्षा की मांग नहीं कर सकते. सेवारत वन अधिकारी राजनेताओं के सामने बेबस हैं. मध्यम वर्ग के लोग, जागरूक नागरिक शहरों और अन्य स्थानों पर राजमार्गों, रेल लाइनों, बिजली परियोजनाओं के कारण तेजी से हो रहे पर्यावास विखंडन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. जबकि अन्य लोग अंडमान निकोबार द्वीप समूह में हो रही तबाही को रोकने के लिए लड़ रहे हैं. 2023 की रिपोर्ट ने कई राज्यों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है.

वन भूमि का परिवर्तन विवाद का एक प्रमुख मुद्दा है, साथ ही शहरी क्षेत्रों में वृक्षों की कटाई भी.लेकिन यदि सरकारी अधिकारी अन्य विकल्पों पर विचार किए बिना ऐसा कर रहे हैं, तो लोगों को सुंदरलाल बहुगुणा और चिपको आंदोलन के उदाहरण पर चलना पड़ेगा, जैसा कि नागरिकों ने पिछले साल इंदौर में किया था. पेड़ों और जंगलों को हर कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए. विश्व स्तर पर इसकी मांग बढ़ती जा रही है. प्रकृति का विनाश रोकना ही होगा.

Web Title: Forests are decreasing indifference is not decreasing

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