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फिरदौस मिर्जा का ब्लॉगः क्या सचमुच कल्याणकारी राज्य में जी रहे हैं हम?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: May 29, 2020 06:48 IST

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कोविड-19 महामारी के चलते  पलायन कर रहे लाखों मजदूरों की व्यथा ने देश के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हम अब भी कल्याणकारी राज्य में रह रहे हैं.

मानव सभ्यता के उद्भव से ही सिविल सोसायटी ने समाज के आचरण तथा राष्ट्रीय जनजीवन को संचालित करने के लिए कई कानून एवं नियम बनाए. कुछ एकाधिकारवादी शासकों ने अपनी प्रजा को दबाकर रखने के लिए कानून बनाए परंतु लोकतंत्र में कानून नागरिकों की भलाई के लिए बनाए जाते हैं. भारत में हमने जाति प्रथा पर आधारित दास प्रथा तथा जबरिया मजदूरी (बेगारी) करवाने का दौर देखा. हमने अंग्रेजों के शासन में मजदूरों पर हुए अन्याय और सिद्धांत रूप में बंधुआ मजदूरी का चलन भी देखा. 26 जनवरी 1950 को हमने अपना संविधान अंगीकृत किया. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समानता एवं नागरिकों के सम्मान की रक्षा ही हमारे संविधान का मूल आधार बनी.

हमारे संविधान में देश में कहीं भी आजादी के साथ आवागमन, कहीं भी बसने, सम्मान के साथ जीने का अधिकार देने के साथ-साथ जबरिया मजदूरी करवाने की व्यवस्था से सुरक्षा की गारंटी दी गई है. संविधान ने देश के लिए नीतियां बनाने के कुछ दिशा-निर्देशक सिद्धांतों को भी निर्धारित किया जिसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि जनता के कल्याण के लिए एक ठोस सामाजिक व्यवस्था बने जिसमें सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय की संकल्पना साकार हो.

अपने संविधान के बाद आजाद भारत ने कल्याणकारी राज्य बनने की दिशा में कदम बढ़ाना शुरू कर दिया. सन् 1976 में  बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) कानून लागू हुआ. इसके जरिए बंधुआ मजदूरी को गैरकानूनी एवं दंडनीय अपराध बना दिया गया.

अंतरराज्यीय स्थलांतरण को रोकने के लिए सन् 2005 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) लागू किया गया. इस कानून का उद्देश्य गांवों से शहरों एवं अन्य राज्यों की ओर श्रमिकों का पलायन रोकना था.

कोविड-19 महामारी के दौरान बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूरों का स्थलांतरण यह दर्शाता है कि हम उपरोक्त कल्याणकारी कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर सके. ऐसा लगता है कि प्रवासी मजदूरों की वास्तविक संख्या के बारे में केंद्र से लेकर राज्य सरकारें भ्रम में हैं. आवास तथा अन्य बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध न करवाए जाने के कारण मजदूर अपने गृहराज्यों में जाने को मजबूर हुए हैं. इससे पता चलता है कि अधिकारियों ने अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूर (रोजगार नियमन व सेवा शर्त) कानून के तहत अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं किया. पलायन से यह भी पता चलता है कि मजदूरों को मनरेगा के तहत उनके मूल स्थान पर काम नहीं मिला तथा  राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का भी संरक्षण नहीं मिला.

अब हमें यह खबर मिल रही है कि प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्यों में प्रवेश करने से रोका जा रहा है. यह संविधान के अनुच्छेद 19 तथा 21 में उन्हें प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों का हनन है. घाव पर नमक छिड़कने जैसा काम कई राज्यों ने श्रम कानूनों को खत्म कर किया है. इससे श्रमिकों का आसानी से शोषण होगा. यह अनुच्छेद 23 में प्रदत्त अधिकारों का हनन है.

अब संविधान को अपनाने के 70 साल बाद हम अपने आप से सवाल कर रहे हैं कि क्या हमने वास्तव में अपने देश को कल्याणकारी राज्य बनाया या हम दुर्भाग्यशाली प्रवासी मजदूरों के बारे में जरा भी चिंतित नहीं हैं. यही सही समय है जब देश एक इकाई के रूप में काम करे और प्रवासी मजदूरों को समान नागरिक माने तथा उन्हें संविधान के अनुच्छेद 21  में  प्रदत्त अधिकार के तहत सम्मानजनक जीवन उपलब्ध करवाए. ऐसा नहीं हुआ तो पूरे देश को इन गरीबों के आक्रोश का सामना करना पड़ेगा.

हम फिर मनरेगा पर आते हैं. मनरेगा को पूरी ताकत व गंभीरता के साथ लागू करना चाहिए. मनरेगा श्रमिकों को किसानों के लिए उपलब्ध करवाकर हम मौजूदा कठिन दौर को अवसर में बदल सकते हैं. इससे किसानों को एक तरह की अप्रत्यक्ष सब्सिडी सरकार से मिल जाएगी क्योंकि इन श्रमिकों के भुगतान का बोझ किसानों पर नहीं पड़ेगा, उन्हें मनरेगा के तहत सरकार मेहनताना देगी. नीति निर्माताओं से अपेक्षा है कि वे कल्याणकारी कानूनों को पूरी शिद्दत के साथ लागू कर जनता को राहत प्रदान करें.

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