Fathers Day: पितृ दिवस पर पीयूष पांडे का नजरिया
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 20, 2020 12:12 PM2020-06-20T12:12:11+5:302020-06-20T12:12:11+5:30
पितृ दिवस यूं तो जैविक पिताओं को धन्यवाद देने के लिए है, किंतु चमचत्व को प्राप्त हो चुके कई चापलूस इस दिन ठेके देने वाले, टिकट बांटने वाले, कमीशन खिलाने वाले अपने आका को बाप मानते हुए धन्यवाद देते हैं. वे बाप के चरणों में लोटायमान होकर आशीर्वाद की गुहार लगाते हैं.
पीयूष पांडे
भारत एक उत्सवधर्मी देश है. साल में जितने दिन नहीं होते, उससे ज्यादा हिंदुस्तान में त्यौहार होते हैं. लेकिन, जिस तरह गोरी चमड़ी और गोरों की भाषा के मोहपाश में हम लोग आज तक बंधे हुए हैं, उसमें उनके छोड़े त्यौहार भी हमें अपने लगने लगे हैं. हाल ये हो गया है कि अगर वैलेंटाइंस डे, मदर्स डे और फादर्स डे मनाकर उसकी फोटो फेसबुक-ट्विटर पर न डालो तो लोग रूढ़िवादी समझने लगते हैं. वैलेंटाइंस और मदर्स डे बीत चुका है, और पिता को समर्पित फादर्स डे देहरी पर खड़ा है.
बाजार ने बताया है कि पितृ दिवस मनाना जरूरी है. लेकिन, आजकल बहुत कंफ्यूजन होता है कि बाप कौन है? छोटे परिवारों का जमाना है, जिसमें कई बाप बच्चे की जिद के आगे बेबस नजर आते हैं. एक जमाना था साहब, जब पिता का रौब हुआ करता था. उस जमाने में ठुकाई-पिटाई को संस्कारों की श्रेणी में रखा जाता था और भारतीय पिता बच्चों को संस्कारी बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते थे. बच्चे बिना कोरोना के कहर के पिता से सुरक्षित दूरी बनाकर रखते थे. पिटाई के मामले में बच्चे भाग्य पर निर्भर रहा करते थे. मुहल्ले में दूसरे बच्चों से पिटकर बच्चा आया तो कई बाप बच्चे को ही फिर पीटते थे कि पिटकर क्यों आया?
पीटने वाला हमेशा बाप कहलाता था. इसी संदर्भ में एक मुहावरा चल निकला- हर बाप का एक बाप होता है. पितृ दिवस यूं तो जैविक पिताओं को धन्यवाद देने के लिए है, किंतु चमचत्व को प्राप्त हो चुके कई चापलूस इस दिन ठेके देने वाले, टिकट बांटने वाले, कमीशन खिलाने वाले अपने आका को बाप मानते हुए धन्यवाद देते हैं. वे बाप के चरणों में लोटायमान होकर आशीर्वाद की गुहार लगाते हैं. ऐसे चमचों का मानना होता है कि जैविक पिता सिर्फ जन्म देने के चक्कर में कुछ ज्यादा क्र ेडिट लेते हैं, जबकि असली आशीर्वाद दूसरे पिता से मिलता है.
पिता की भूमिका में होने वाला शख्स ज्ञान बांटने के लिए आॅथराइज होता है. राजनीतिक दलों में आलाकमान सबका बाप होता है, क्योंकि वो टिकट बांटता है. प्राइवेट दफ्तरों में बॉस ही पिता तुल्य माना जाता है. वो सर्वज्ञान संपन्न पिता होता है, जिसके ज्ञान को सहायक कर्मचारी इतनी शिद्दत से रात 11 बजे भी सुनते हैं कि वास्तविक पिता फुटेज देखकर उलझन में पड़ सकते हैं कि उन बच्चों का वास्तविक पिता है कौन?
उधर गरीबों को अरसे से एक पिता की तलाश है, जो वादों से इतर रोटी दे और अपनी छांव में इन्हें नागरिक होने का अहसास कराए. कितने ही फादर्स डे बीत गए, इन गरीबों को वो पिता नहीं मिला.