राजेश बादल का ब्लॉगः आखिरकार गांधी मार्ग पर डटे किसान जीत गए

By राजेश बादल | Published: November 20, 2021 08:55 AM2021-11-20T08:55:46+5:302021-11-20T08:55:56+5:30

महात्मा गांधी के देश में साल भर से चल रहे इस शांतिपूर्ण आंदोलन पर दुनिया भर की नजरें टिकी थीं। सरकार की किरकिरी हो रही थी।

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राजेश बादल का ब्लॉगः आखिरकार गांधी मार्ग पर डटे किसान जीत गए

आखिरकार सरकार को झुकना ही पड़ा। साल भर से आंदोलन कर रहे किसान जीते और प्रधानमंत्री विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान करने पर मजबूर हो गए। महात्मा गांधी के देश में साल भर से चल रहे इस शांतिपूर्ण आंदोलन पर दुनिया भर की नजरें टिकी थीं। सरकार की किरकिरी हो रही थी। भले ही किसानों ने अपने आंदोलन का स्वरूप गैरराजनीतिक रखा हो, लेकिन यह हकीकत है कि इसे विपक्षी दलों, समाज के तमाम वर्गो, कारोबारियों, ब्यूरोक्रेसी और भारतीय जनता पार्टी की अनेक उपधाराओं का समर्थन हासिल था। राष्ट्रपति के संवैधानिक प्रतिनिधि एक राज्यपाल सतपाल मलिक तो खुल्लम-खुल्ला किसान आंदोलन को समर्थन दे चुके थे। इसे राष्ट्रपति भवन का मूकसमर्थन भी मान लिया गया था। यदि राष्ट्रपति अपने राज्यपाल से सहमत नहीं होते तो अब तक उन्हें हटा चुके होते या उनसे इस्तीफा ले चुके होते। चूंकि राष्ट्रपति बजट सत्र की शुरुआत अपनी सरकार की उपलब्धियों से ही करते हैं और संविधान भी केंद्र सरकार को राष्ट्रपति की सरकार मानता है, ऐसे में बहस यह भी छिड़ गई थी कि क्या राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

सवाल यह है कि सत्याग्रही किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी, देशद्रोही, विदेशी पैसे पर चलने वाला बताने के बाद केंद्र सरकार को यूटर्न क्यों लेना पड़ा? आजादी के बाद पहली बार किसी गैर कांग्रेसी पार्टी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया था और इसी दम के साथ राज कर रही पहली गैर कांग्रेसी पार्टी ने घुटने क्यों टेके? इन प्रश्नों का उत्तर किसी ताले में बंद नहीं है। यह छिपा हुआ नहीं है कि महाराष्ट्र और बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा अपने बेहद कठिन दौर से गुजर रही है। दक्षिण में उसका वजूद असरदार नहीं है। पूरब और पश्चिम में वह पटखनी खा चुकी है। अब उसके कामकाज का लिटमस टेस्ट उत्तर में होने वाला है। उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। योगी सरकार का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है। लखीमपुर खीरी हादसे ने लोगों को हिला दिया है। उसमें एक केंद्रीय मंत्री और उनके बेटे की भूमिका ने उन्हें खलनायक बना दिया है। इसके अलावा पंजाब में भी भारतीय जनता पार्टी के लिए मुश्किल घड़ी है। वहां दशकों पुराना उसका सहयोगी अकाली दल छिटक गया है। अब कांग्रेस से किनारा कर चुके पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा के लिए कुछ सहारा बन सकते हैं, लेकिन वे तभी समर्थन देने या लेने को तैयार थे, जबकि केंद्र सरकार कृषि कानून वापस लेती। इसी कड़ी में उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने के बाद भी अंतर्कलह थमने का नाम नहीं ले रही है। ऊपर से केंद्र सरकार की नाकामियों के प्रेत भी मंडरा रहे हैं। किसान आंदोलन चुनाव वाले प्रदेशों में एक गंभीर मुद्दा बनकर उभरा है। इस आंदोलन के चलते भारतीय जनता पार्टी के पास मतदाता के सामने जाने का कोई नैतिक आत्मबल नहीं बचा था।

अन्य प्रदेशों में तो एक बार पार्टी सारा जोर लगाकर चुनाव मैदान में कूद सकती थी लेकिन उत्तर प्रदेश का मामला अलग है। इस राज्य से राष्ट्रपति चुने गए हैं, प्रधानमंत्री चुने गए हैं, रक्षामंत्री निर्वाचित हैं, और भी कई केंद्रीय मंत्री इस प्रदेश से हैं, पार्टी का सबसे बड़ा हिंदू चेहरा मुख्यमंत्री के रूप में उनके साथ है, राहुल गांधी को कांग्रेस के गढ़ में हराने वाली स्मृति ईरानी जैसी फायर ब्रांड नेत्री इसी राज्य से हैं और आधा गांधी खानदान भाजपा के साथ है (यह बात अलग है कि वरुण गांधी और मेनका गांधी इन दिनों अपने दल से प्रसन्न नहीं हैं ) इसके अलावा प्रदेश की बड़ी समस्याओं से निपटने में सरकार विफल रही है। हाल ही में कांग्रेस पार्टी की नेत्री प्रियंका गांधी और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की रैलियों में जिस तरह लोग उमड़े हैं, उसने यकीनन भारतीय जनता पार्टी की नींद उड़ा दी होगी। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी अपना हारना पचा नहीं पाएगी। यह उसके अपने राजनीतिक भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।

तीनों कृषि कानून जिस ढंग से संसद में पास कराए गए थे, उसे पूरे देश ने देखा था। इससे केंद्र सरकार की बदनामी ही हुई थी। जानकार लोग हैरान थे कि जब भाजपा केंद्र सरकार अपने दम पर चला रही है तो किसी भी कानून को पास कराने में लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर की उपेक्षा क्यों की गई। पार्टी पर बड़े पूंजीपतियों के हित संरक्षण का आरोप लगा और हिंदुस्तान ने अब तक का सबसे लंबा अहिंसक आंदोलन देख लिया। इन पूंजीपतियों को तो बाद में भी फायदा पहुंचाया जा सकता है। लेकिन एक बार उत्तर प्रदेश का किला अगर भारतीय जनता पार्टी ने हाथ से निकल जाने दिया तो फिर यह तथ्य स्थापित हो जाएगा कि तिलिस्म अब टूटने लगा है। निश्चित रूप से संसार का सबसे बड़ा यह दल नहीं चाहेगा कि ऐसी स्थिति निर्मित हो। इसीलिए बिना कैबिनेट की बैठक बुलाए या दिग्गजों को भरोसे में लिए प्रधानमंत्री ने कृषि कानून वापस लेने की घोषणा कर दी। देर आयद दुरुस्त आयद की कहावत कितनी काम आती है, देखना है।

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