देश के सबसे बड़े विधि अधिकारी ‘महान्यायवादी’ आर. वेंकटरमणि ने शीर्ष न्यायालय में चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई से पहले केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि देश की जनता को राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, यह जानने का अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में गुरुवार को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। चुनावी बॉन्ड चंदा देने का एक स्वच्छ जरिया है, इसलिए इनके नाम सार्वजनिक नहीं किए जा सकते हैं। महान्यायवादी ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1-ए) के तहत नागरिकों को चुनावी धन का स्रोत जानने का अधिकार नहीं होने की दलील भी दी।
इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ कर रही है। इस मामले में विडंबना यह है कि इसी अदालत के ही 2003 में दिए एक फैसले के अनुसार हर प्रत्याशी को बाध्य किया गया है कि वह अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी शपथ-पत्र में नामांकन देने के साथ दे। साफ है कि मतदाताओं को आपराधिक छवि के उम्मीदवारों के बारे में जानने का हक तो है, लेकिन दलों के चंदे का स्रोत क्या है, इसे जानने का अधिकार नहीं है।
महान्यायवादी ने इस सिलसिले में तर्क दिया है कि उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास को जानने के अधिकार का मतलब यह नहीं है कि पार्टियों के वित्तपोषण के बारे में जानने का अधिकार भी है। महान्यायवादी की दलील से साफ है कि सरकार राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के हक में नहीं है। वित्त विधेयक-2017 में प्रावधान है कि कोई व्यक्ति या कंपनी चेक या ई-पेमेंट के जरिये चुनावी बॉन्ड खरीद सकता है। ये बियरर चेक की तरह बियरर बॉन्ड होंगे।
मसलन इन्हें दल या व्यक्ति चेकों की तरह बैंकों से भुना सकते हैं। चूंकि बॉन्ड केवल ई-ट्रांसफर या चेक से खरीदे जा सकते हैं, इसलिए खरीदने वाले का पता होगा, लेकिन पाने वाले का नाम गोपनीय रहेगा। अर्थशास्त्रियों ने इसे कालेधन को बढ़ावा देने वाला उपाय बताया था, क्योंकि इस प्रावधान में ऐसा लोच है कि कंपनियां इस बॉन्ड को राजनीतिक दलों को देकर फिर से किसी अन्य रूप में वापस ले सकती हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश के लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर 50 हजार करोड़ रु. से ज्यादा खर्च होते हैं।
इस खर्च में बड़ी धनराशि कालाधन और आवारा पूंजी होती है, जो औद्योगिक घरानों और बड़े व्यापारियों से ली जाती है। आर्थिक उदारवाद के बाद यह बीमारी सभी दलों में पनपी है। इस कारण दलों में जनभागीदारी निरंतर घट रही है। कॉरपोरेट फंडिंग ने ग्रास रूट फंडिंग का काम खत्म कर दिया है। इस वजह से दलों में जहां आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हुआ, वहीं आम आदमी से दूरियां भी बढ़ती गईं।