शरद जोशी: एक साहित्यकार की विरह-व्यथा

By राहुल मिश्रा | Published: February 23, 2019 12:54 PM2019-02-23T12:54:39+5:302019-02-23T12:54:39+5:30

मैं उसके लिए पुलिस में रिपोर्ट नहीं करवा सकता था. अखबारों में हुलिया सहित सूचना दे, पहुंचाने का इनाम घोषित नहीं कर सकता था.

एक साहित्यकार की विरह-व्यथा | शरद जोशी: एक साहित्यकार की विरह-व्यथा

शरद जोशी: एक साहित्यकार की विरह-व्यथा

मैं नहीं जानता, वह कहां गया.

मैं उसके लिए पुलिस में रिपोर्ट नहीं करवा सकता था. अखबारों में हुलिया सहित सूचना दे, पहुंचाने का इनाम घोषित नहीं कर सकता था.

शायद मैं कल पतंग उड़ाते वक्त कहीं खो बैठा. या जो रद्दी बिकी, उसमें चला गया. संगीत-स्कूल में रह गया हो. पता नहीं, अगर कल जो एक बैरंग प्रेम-पत्र भेजा, उसमें चला गया हो. मैंने हर जगह देख डाली-अलमारियों से लेकर सिगड़ियों तक, पर निराश हो गया.

‘कॉलम’ खो गया, इसमें आश्चर्य नहीं क्योंकि अभी पिछले दिनों से मैं भूलने का शौकीन हो गया हूं. चार जनवरी को मैंने एक सिटी बस खो दी. उसके पूर्व दो बार अस्पताल भूल गया. अभी जब एक प्रेम-पत्र लिख रहा था तो उसका ही नाम याद नहीं रहा.

दुनिया में चीजें खो जाना आश्चर्य की चीज नहीं है. न्यू साउथ वेल्स में कुछ वर्षो पूर्व रेलवे इंजिन खो गया था. उस वक्त अधिकारियों ने तहकीकात के लिए पुलिस को बुलवाया. इनाम घोषित किया. 

एक सप्ताह बाद जाकर वह एक जगह खड़ा नजर आया.

एच.एम.एस. ‘फालमाउथ’ नामक जहाज, जो ब्रिटेन से बटाविया को रवाना हुआ था, खो गया. अधिकारी उसे भेजकर भूल गए. दस वर्ष बाद  एकाएक उन्हें याद आई.

एच.एम.एस. ‘डाल्फिन’ उसे खोजने रवाना हुआ. बेचारा ‘फालमाउथ’ एक द्वीप के पास खड़ा था कि कब जाने का हुक्म मिलेगा.

मेरा कॉलम भी जाने कहां अटक गया! दस साल बाद मिला तो ‘सम्पादक’ छापेंगे नहीं.

मैं इस उम्मीद में दो-तीन घंटे बैठा रहा कि शायद कोई ले आए.

मेरा कॉलम राम जाने मेरे मकान की किन खोह-खड्डों  और खाइयों में गया, पता नहीं लगा. मेरी बहन ब्रrापुत्र  का कहना था कि जब उसका छाता खो गया तब भी इतना दुख उसे नहीं हुआ था जितना मुङो इस चार कागज के पन्नों का था. जाने दे, गया तो. पर मैं ही अपनी तकलीफ जानता था. वह चीज फिर से तो नहीं लिखी जा सकती है. अ™ोय ने अपनी खोई हुई कहानी को फिर से लिखा तो क्या वैसी थोड़े बन सकी जैसे पहले थी? ‘वैशाली की नगरवधू’ जब पहली बार गुम गई तो लेखक की पीड़ा किसी ने नहीं समझी. इस वजह से मैं दिनभर दुखी ही रहा और गुप्तजी की यह पंक्ति ही सिर्फ कहने को रह गई :

सहृदय पाठक! सुना-सुनाकर निज कथा/ तुमको देना नहीं चाहता मैं व्यथा/ बस तुम रोको मुङो न रोने से अहो/ करके इतनी कृपा सदा सुख से रहो. ल्लल्ल

 (रचनाकाल - 1950 का दशक)

Web Title: एक साहित्यकार की विरह-व्यथा

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