विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः राजनीतिक दबाव से मुक्त रहें शिक्षा के केंद्र

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 9, 2018 01:06 AM2018-11-09T01:06:05+5:302018-11-09T01:06:05+5:30

अहमदाबाद विश्वविद्यालय एक निजी संस्थान है और पिछले कुछ वर्षो में इसने शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। यहां पढ़ाने वालों को शिक्षा के क्षेत्र में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। इसका कारण यही है कि संस्थान में प्रोफेसरों के चयन में पर्याप्त सतर्कता बरती जाती है।

education institutions stay free from political pressure and urban naxal communist | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः राजनीतिक दबाव से मुक्त रहें शिक्षा के केंद्र

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः राजनीतिक दबाव से मुक्त रहें शिक्षा के केंद्र

विश्वनाथ सचदेव

‘राष्ट्र विरोधी’, ‘शहरी नक्सल’  और ‘कम्युनिस्ट’ ये उन कई विशेषणों में से तीन हैं जो भारतीय जनता पार्टी की छात्र-शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने देश के जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा को समर्पित किए हैं। परिषद का कहना है कि ऐसे व्यक्ति को अहमदाबाद विश्वविद्यालय जैसी संस्था में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। वस्तुत: ये तीनों विशेषण आजकल फैशन में हैं। शहरी नक्सल या कम्युनिस्ट कह कर किसी को भी राष्ट्र-विरोधी घोषित करना अब सामान्य-सी बात लगने लगी है। रामचंद्र गुहा को भी राष्ट्र-विरोधी घोषित कर दिया गया है। बता दिया गया है कि गांधी के गुजरात में गुहा जैसे व्यक्ति के लिए कोई रचनात्मक स्थान नहीं है। 

परिषद के इस रवैये को देखते हुए गुहा ने अहमदाबाद विश्वविद्यालय के उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है जिसमें उनसे प्रोफेसर का पद स्वीकारने का आग्रह किया गया था। उन्होंने कहा है, स्थितियां ऐसी नहीं हैं कि वे अहमदाबाद जाकर छात्रों को पढ़ा सकें। जहां तक विश्वविद्यालय का सवाल है, उसने इस विषय पर लगभग मौन साध रखा है। उसका कहना है कि अभी तक जाने-माने इतिहासकार ने विश्वविद्यालय को अपने निर्णय से सूचित नहीं किया है। सोशल मीडिया के माध्यम से गुहा ने दुनिया भर को अपना निर्णय बता दिया है। सवाल उठता है कि क्या ऐसे में स्वयं संबंधित विश्वविद्यालय का यह दायित्व नहीं बनता कि वह आगे बढ़कर स्थिति को स्पष्ट करे? संबंधित इतिहासकार को आश्वासन दे कि उन्हें किसी प्रकार के डर की जरूरत नहीं है? 

सवाल और भी बहुत सारे उठने चाहिए : पूछा जाना चाहिए कि किसी छात्र संगठन को किसी विश्वविद्यालय का यह अधिकार छीनने का हक किसने दिया है कि वह किसी प्रोफेसर की नियुक्ति कर सके? पूछा यह भी जाना चाहिए कि विद्यार्थी परिषद जैसे संगठन को यह अधिकार किसने दिया है कि वह किसी विद्वान की योग्यता-अयोग्यता पर फैसला दे? और सवाल यह भी उठता है कि क्या ऐसी स्थिति में शासन का दायित्व यह नहीं बनता कि वह विश्वविद्यालय के अधिकार की रक्षा का आश्वासन दे? यह सुनिश्चित करे कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बना रहे? 

अहमदाबाद विश्वविद्यालय एक निजी संस्थान है और पिछले कुछ वर्षो में इसने शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। यहां पढ़ाने वालों को शिक्षा के क्षेत्र में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। इसका कारण यही है कि संस्थान में प्रोफेसरों के चयन में पर्याप्त सतर्कता बरती जाती है। इसीलिए यह आशा भी की गई थी कि रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार और महात्मा गांधी के जीवनीकार जैसे व्यक्तित्व से विश्वविद्यालय के शिक्षण स्तर को और आदर मिलेगा। लेकिन, विद्यार्थी परिषद की इस अनधिकार चेष्टा और विश्वविद्यालय की लगभग चुप्पी ने इस संभावना को नकार दिया है। यह एक चिंताजनक स्थिति है। 

सच पूछा जाए तो इस बात की चिंता ज्यादा होनी चाहिए कि शिक्षा संस्थानों से जुड़े समाज के साथ-साथ देश के प्रबुद्ध सामान्य समाज ने भी इस विषय की गंभीरता को नहीं समझा है। सवाल सिर्फ एक प्रोफेसर की नियुक्ति का नहीं है, सवाल शिक्षा के क्षेत्र में गैरअधिकारी व्यक्तियों और तत्वों के अनुचित हस्तक्षेप का है। कभी यह तत्व किसी विश्वविद्यालय में किसी विचारधारा विशेष की उपस्थिति के खिलाफ आंदोलन छेड़ते हैं, कभी किसी चित्र की उपस्थिति उन्हें गैरजरूरी और अनधिकारी हस्तक्षेप का अवसर दे देती है।  

गुहा वाले इस मामले में ही ‘राष्ट्र-विरोधी’  या ‘शहरी नक्सल’  या ‘कम्युनिस्ट’ जैसे शब्दों को काम में लिए जाने का आखिर क्या अर्थ है? यह सही है कि किसी राष्ट्र-विरोधी कार्य या विचार को स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह तय करने का अधिकार किसी संगठन विशेष अथवा विचारधारा विशेष को कैसे दिया जा सकता है कि राष्ट्र-विरोधी क्या है अथवा कौन है? 

हमारे प्रधानमंत्री ने एक बार ‘हार्वर्ड’ के बजाय ‘हार्ड वर्क’ को प्राथमिकता देने की बात कही थी। चुनावी सभाओं में ऐसे जुमले तालियां जुटाने में मददगार हो सकते हैं, लेकिन इस तरह की बातें विश्वविद्यालयों की महत्ता को कम आंकने का कारण बनती हैं। यदि हार्वर्ड की गणना श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में होती है तो हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हमारे विश्वविद्यालय भी उस श्रेष्ठता को पाएं। हम नालंदा या विक्रमशिला का नाम लेकर अपने इतिहास पर गर्व करते हैं, पर आवश्यकता वर्तमान को गर्व करने लायक बनाने की है।  

आखिर कैसे बना सकते हैं हम अपने विश्वविद्यालयों को गर्व करने लायक? जिस तरह आज हमारे शिक्षा संस्थानों में अनुचित हस्तक्षेप करके मुक्त चिंतन के मार्ग को कांटों भरा बनाया जा रहा है, वह निश्चित रूप से चिंता की बात है। 

Web Title: education institutions stay free from political pressure and urban naxal communist

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