ब्लॉग: पीढ़ियां बरबाद करने के बाद शिक्षा आपातकाल
By राजेश बादल | Published: September 10, 2024 09:42 AM2024-09-10T09:42:23+5:302024-09-10T09:49:02+5:30
किसी भी सैनिक तानाशाही के लिए सुविधाजनक होता है कि वह नागरिकों को जागरूक नहीं होने दे और अनपढ़ तथा अधिकारों से बेखबर अवाम पेट की आग शांत करने की चिंता करती रहे।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने ऐलान किया है कि समूचे मुल्क में शिक्षा आपातकाल लगाया जा रहा है। इसके तहत मुल्क के अस्तित्व में आने के 77 साल बाद बच्चों को मध्याह्न भोजन प्रारंभ किया जा रहा है। पहली बार उनका नामांकन कराया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर सरकार ने यह घोषणा की। उसने माना है कि पाकिस्तान में बच्चों की शिक्षा का स्तर बेहद खराब है और करीब तीन करोड़ बच्चे स्कूलों का दर्शन ही नहीं कर पाते। इन दिनों देश की कुल आबादी 21 करोड़ से कुछ अधिक है। इसमें बच्चों की संख्या 45 प्रतिशत यानी साढ़े नौ करोड़ है।
जनसंख्या नियंत्रण अभियान प्रभावी ढंग से संचालित नहीं करने या यूं कहें कि बच्चों के जन्म में महिलाओं को मशीन की तरह इस्तेमाल करने के कारण यह स्थिति बनी। महंगाई और बेरोजगारी के कारण छोटे-छोटे बच्चे मजदूरी करते हैं। आंकड़े कहते हैं कि पचास प्रतिशत बच्चे थोड़ी बहुत पढ़ाई के बाद घर के दबाव में स्कूल छोड़ देते हैं। कुछ दिन पहले प्रतिष्ठित संस्था पाक अलायन्स फॉर मैथ्स एंड साइंस ने पिछले साल के आंकड़ों के आधार पर अपनी रिपोर्ट में सनसनीखेज खुलासे किए।
द मिसिंग थर्ड ऑफ पाकिस्तान नाम से इस रपट में कहा गया है कि मुल्क का स्कूली शिक्षा ढांचा चरमरा गया है। करीब 74 फीसदी बच्चे गांवों में रहते हैं, जहां न स्कूल पहुंचते हैं और न गांववाले स्कूलों के दर्शन कर पाते हैं। भयावह तो यह है कि पांच से नौ साल की आयु वाले 51 प्रतिशत बच्चों के लिए स्कूल जाना सपने जैसा है। पाकिस्तान का कट्टरपंथी समाज पहले ही महिला शिक्षा के खिलाफ है। रिपोर्ट कहती है कि 80 फीसदी ग्रामीण लड़कियां कभी स्कूल नहीं जातीं। विडंबना यह कि शहरी इलाकों में भी शिक्षा के बारे में चेतना नहीं है।
लाहौर और कराची जैसे महानगरों में यही दुर्दशा है। अकेले कराची में 18 लाख बच्चों का कहीं स्कूली नामांकन नहीं है। तनिक और पीछे जाएं तो तीन साल पहले जारी एक दस्तावेज में कहा गया था कि पाकिस्तान एजुकेशन टास्क फोर्स ने वर्ष 2011 में तालीमी इमरजेंसी का सुझाव दिया था। इसमें कहा गया था कि पाकिस्तान शिक्षा के क्षेत्र में संतोषजनक भूमिका निभाने में नाकाम रहा है. पर उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
दिलचस्प है कि अब पाकिस्तान की नई नस्ल और सियासत में भारत की शिक्षा प्रणाली के बारे में तारीफ करने का भाव पैदा हुआ है. बीते दिनों वहां असेंबली में बहस के दौरान मुखर सांसद सैयद मुस्तफा कमाल ने भारतीय शिक्षा तंत्र के कसीदे पढ़े. दोनों राष्ट्रों के तालीमी स्तर पर उनकी टिप्पणी थी कि एक तरफ दुनिया चांद पर जा रही है, वहीं कराची में बच्चे गटर में गिरकर मर रहे हैं। सैयद मुस्तफा ने कहा कि 30 साल पहले, हमारे पड़ोसी भारत ने अपने बच्चों को वह सिखाया, जिसकी आज पूरी दुनिया में मांग है। आज शिखर की 25 कंपनियों के सीईओ भारतीय हैं।
भारत तरक्की कर रहा है तो वजह यह है कि वहां वो सिखाया गया, जो जरूरी था। पाकिस्तान का आईटी निर्यात 7 अरब डॉलर है, जबकि भारत का आईटी निर्यात 270 अरब डॉलर. इस भाषण के बाद टीवी चैनलों में भी भारत की तारीफ के पुल बांधे जा रहे हैं। आए दिन हिंदुस्तान को कोसने वाले एंकर और विशेषज्ञ अब मुल्क में बच्चों को बिगाड़ने के लिए कट्टरपंथी तालीम को जिम्मेदार मान रहे हैं और भारत की प्रशंसा करते नहीं अघाते। बच्चों को विकृत पाठ पढ़ाने का सिलसिला दशकों से चल रहा है।मैं उदाहरण देता हूं। भारत में 1954 में फिल्म ‘जागृति’ बनी थी। यह बच्चों को देशप्रेम, शिक्षा और जागरूकता का संदेश देती थी। भारतीय संविधान में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का संकल्प लिया गया था। फिल्म उसी आधार पर बनी थी। फिल्म के अधिकतर कलाकार मुस्लिम थे। फिल्म बेहद लोकप्रिय हुई।
इसके बाद अधिकतर कलाकार पाकिस्तान चले गए. वहां वे जागृति की पटकथा लेते गए. चार साल बाद वहां भी इसी पटकथा पर ‘बेदारी’ नाम से फिल्म बनी. इस फिल्म ने भी लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित किए। हाल यह था कि सात दिन में ही फिल्म की लागत वसूल हो गई। इसमें दृश्य, कहानी, संगीत, गीत सब कुछ जागृति की नकल थे। जैसे एक गीत है - हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के. बेदारी फिल्म में इसे लिखा गया-हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस मुल्क को रखना मेरे बच्चो संभाल के। इस गाने में आगे एक पंक्ति है- लेना अभी कश्मीर है, ये यह बात न भूलो, कश्मीर पे लहराना है झंडा उछाल के। इसी तरह भारत के प्रति इतनी नफरत भरी गई कि जब अखबार में छप गया कि फिल्म तो हिंदुस्तानी फिल्म की नकल है तो फौजी हुकूमत ने उस पर तुरंत रोक लगा दी।
लेकिन यहां प्रश्न फिल्म का नहीं, बल्कि बच्चों को बेहतरीन शिक्षा का है। आबादी के मान से गुजिश्ता 77 साल में शिक्षा का ढांचा खड़ा करने पर जोर नहीं दिया गया. बच्चे मदरसों में बुनियादी तालीम के बाद पढ़ाई की इतिश्री समझ लेते हैं. ज्यादातर फौजी हुकूमत रहने के कारण उसने लोगों को साक्षर बनाने पर जोर नहीं दिया। किसी भी सैनिक तानाशाही के लिए सुविधाजनक होता है कि वह नागरिकों को जागरूक नहीं होने दे और अनपढ़ तथा अधिकारों से बेखबर अवाम पेट की आग शांत करने की चिंता करती रहे। उसके भीतर विचारों की आग न भड़के। फौज ने हमेशा शिक्षा तंत्र में भारत से नफरत का पाठ पढ़ाया। कश्मीर को छीन कर लेने की भावना जगाई और पख्तूनिस्तान समेत अनेक सूबों में बच्चों के हाथों में हथियार थमाए।
अब इतनी देर से हुकूमत जागी है तो यही कहा जा सकता है कि ‘मिट गया जब मिटने वाला, फिर सलाम आया तो क्या’. कट्टरपंथी और फौज उसके निर्णय को कितना समर्थन देते हैं - यह देखना है।