डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: उन फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है!

By विजय दर्डा | Published: May 29, 2023 08:08 AM2023-05-29T08:08:08+5:302023-05-29T08:16:52+5:30

अपने देश के किसानों की दुर्दशा देख मुझे रोना आता है. हम हर क्षेत्र में तरक्की कर रहे हैं. हमारे पास बेहतर तकनीक है. फिर भी हमारे किसान इतने लाचार क्यों बने हुए हैं. आखिर क्यों वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं?

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डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: उन फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है!

हो जाये अच्छी भी फसल,
पर लाभ कृषकों को कहां,
खाते, खवाई, बीज
ऋण से हैं रंगे रक्खे जहां.

आता महाजन के यहां
वह अन्न सारा अंत में,
अधपेट खाकर फिर
उन्हें है कांपना हेमंत में.

मानो भुवन से भिन्न उनका,
दूसरा ही लोक है,
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं
उनमें नहीं आलोक है.

हिंदुस्तान की आजादी से बहुत पहले महान कवि मैथिलीशरण गुप्त ने किसानों की स्थिति पर यह कविता लिखी थी. यह कविता मेरे बाबूजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री जवाहरलाल दर्डा ने सुनाई थी. जब भी मैं किसानों को देखता हूं तो यह कविता आज भी मेरे जेहन में उभर आती है. हमें आजादी मिली और देश में बहुत कुछ बदला, बहुत कुछ बदल भी रहा है. कभी भूखे हिंदुस्तान को अमेरिका ने सड़ा गेहूं दिया था. 

आज हिंदुस्तान दुनिया को गेहूं निर्यात कर रहा है. अन्न उत्पादन में आज भारत काफी हद तक आत्मनिर्भर है लेकिन बड़ा सवाल है कि अपनी मेहनत से अनाज उपजाने वाले किसानों की स्थिति कितनी बदली है? सरकारी आंकड़े कहते हैं कि हर साल औसतन पंद्रह हजार से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर लेते हैं. आत्महत्या के मामले में विदर्भ और महाराष्ट्र पूरे देश में प्रथम पायदान पर है. आत्महत्या करने वाले इन किसानों में 70 प्रतिशत से ज्यादा ऐसे छोटे किसान होते हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन होती है.

मैं आंकड़ों में नहीं जाना चाहता लेकिन समस्या की जड़ को समझने के लिए कुछ आंकड़े आपके सामने रखना जरूरी है. ग्रामीण क्षेत्र की आधी से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है लेकिन दुर्भाग्य से खेतों के आकार लगातार छोटे होते जा रहे हैं. करीब साठ साल पहले तक खेतों का औसत आकार 2.7 हेक्टेयर हुआ करता था जो अब घटकर 1.2 हेक्टेयर से भी कम रह गया है. पहले देश में करीब पांच करोड़ खेत थे लेकिन जमीन के टुकड़े होने के कारण खेतों की संख्या बढ़ कर 14 करोड़ से ज्यादा हो गई है. केवल 3 प्रतिशत खेत ही 5 हेक्टेयर से बड़े हैं. खेतों का छोटा होता आकार बड़ी समस्या है.

चाहे अमेरिका हो, इजराइल हो या फिर यूरोप सभी जगह सहकारिता के आधार पर खेती की व्यवस्था है. सीधा सा गणित होता है. किसानों ने मिलकर अपनी जमीन को बड़ा आकार दे दिया है. वहां सैकड़ों हेक्टेयर के खेत होते हैं. प्रतिशत के आधार पर उपज के मुनाफे का वितरण हो जाता है. हमारे यहां बारिश के पानी को रोकने की व्यवस्था नहीं है. किसानों को मार्गदर्शन नहीं मिलता कि उनकी  जमीन कैसी है, कौन सी फसल लगानी चाहिए. फसल की मार्केटिंग कैसी होनी चाहिए. गोडाउन और प्रोसेसिंग कैसी होनी चाहिए, उचित कीमत कैसे मिले. 

हमारे यहां से संतरा, लीची और आम जैसे फल दुनिया भर में पहुंच सकते हैं लेकिन इस दिशा में ठोस पहल का अभाव है. अभी कहा जा रहा है कि मोटे अनाज यानी मिलेट की पैदावार बढ़ाओ. अंग्रेजी अखबारों में खूब विज्ञापन छप रहे हैं लेकिन किसान को कोई बताने वाला नहीं कि मोटे अनाज के अच्छे बीज कहां से आएंगे? मार्केटिंग कैसे होगी? हमारे यहां किसानों की स्थिति ऐसी नहीं है कि वे यह सब अपने बलबूते पर कर लें. जब छोटे उद्योगपति कुछ नहीं कर पाते तो किसान कैसे कर लेंगे? और हां, किसानों के बीच से निकल कर जो लोक प्रतिनिधि संसद से लेकर विधानसभा या स्थानीय संस्थाओं में पहुंचे हैं वे किसानों की आवाज नहीं बन पाए हैं.    

मैं हमेशा इस बात का समर्थक रहा हूं कि कृषि को भी उद्योग जैसा दर्जा मिलना चाहिए. अपने संसदीय कार्यकाल में मैंने यह सवाल कई बार सदन में उठाया भी था. जिस तरह से उद्योगों के लिए ऋण से लेकर सस्ती बिजली, सस्ता पानी और मार्गदर्शन की व्यवस्था है, वैसा ही खेती के लिए भी होना चाहिए. उन्नत देश भी अपने किसानों को अनुदान देते हैं. हर तरह की मदद करते हैं लेकिन हमारे देश के किसानों को जो मदद मिलती है वह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है. खाद और बीज की क्या स्थिति है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है. कभी बाजार से खाद गायब हो जाता है तो कभी ऐसे बीज किसानों तक पहुंचते हैं जिनका अंकुरण ही ठीक से नहीं होता है. 

मौसम की मार बची-खुची कसर पूरी कर देती है. नतीजा हमारे सामने होता है. महाराष्ट्र के किसान कभी हजारों हजार टन प्याज सड़क पर फेंकने को मजबूर हो जाते हैं तो कभी छत्तीसगढ़ के किसान टमाटर फेंक देते हैं. कभी हरियाणा में पांच से सात पैसे प्रति किलो आलू खरीदा जाता है तो कभी मध्यप्रदेश के किसान सड़कों पर सब्जियां फेंक देते हैं क्योंकि उन्हें बाजार ले जाएं तो भाड़े की लागत भी न निकले.

कमाल की बात यह है कि एक तरफ किसान को उसकी फसल का कुछ भी खास नहीं मिल पाता तो दूसरी ओर शहरी ग्राहक महंगी सब्जियां खरीद रहा होता है. बिचौलियों का समूह मालामाल हो जाता है और किसान कर्जदार! हर फसल के लिए कर्ज लेने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं होता. यह कर्ज बैंकों से कम और साहूकारों से ज्यादा लिया जाता है. 

यही कारण है कि महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री ने इसी महीने कृषि संबंधी एक बैठक में कहा भी कि अवैध साहूकारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी. ऐसे लोगों को जेल की हवा खानी पड़ेगी. लेकिन सवाल है कि किसान करे क्या? बैंकों की शर्तें ऐसी हैं कि किसान उन्हें पूरी कर ही नहीं सकता. मैंने संसद में एक बार कहा था कि एक बैंक मैनेजर ने ऋण लेने आए व्यक्ति से कहा कि दूध दुहने की योग्यता का प्रमाण पत्र लेकर आओ. वह व्यक्ति प्रमाण पत्र कहां से लाता? उसे ऋण नहीं मिला.

हमारे कृषि विद्यापीठ सफेद हाथी बन कर रह गए हैं. किसानों से कोई सीधा संवाद नहीं है. किसानों के लिए एक शैक्षणिक यात्रा तक आयोजित नहीं होती. यह विडंबना ही है कि सरकारी स्तर पर योजनाओं की भरमार है, बैठकें भी खूब होती हैं. भाषण भी खूब होते हैं लेकिन किसानों की स्थिति सुधारनी है तो निश्चय ही अधिकारियों को वातानुकूलित कमरों से निकल कर खेत की मेड़ पर जाना होगा. 

किसानों की समस्याओं को समझना होगा. केवल अपनी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी बता देने से तस्वीर नहीं बदलेगी. एक छोटा उदाहरण देता हूं. हिंदुस्तान में आज भी दर्जनों ऐसे कीटनाशक हैं जिन्हें दुनिया के ज्यादातर देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है लेकिन हमारे यहां धड़ल्ले से बिक रहे हैं. हमें किसानों को तो बचाना ही है, अपनी धरती को भी बचाना होगा अन्यथा जमीन बंजर हो जाएगी. जितनी जल्दी सतर्क  हो जाएं, उतना ही बेहतर होगा.

Web Title: Dr. Vijay Darda's Blog: The village weather is pink in those files!

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