डॉ एसएस मंठा का ब्लॉगः #MeToo की परिणति क्या होगी?

By लोकमत न्यूज़ ब्यूरो | Published: October 20, 2018 09:15 PM2018-10-20T21:15:24+5:302018-10-20T21:15:24+5:30

‘मी टू’ वाक्यांश को सबसे पहले हॉलीवुड अभिनेत्री अलिसा मिलानो ने 15 अक्तूबर 2017 को अपनी आपबीती के साथ ट्वीट किया था और एक ही दिन में इस हैशटैग के साथ पांच लाख से ज्यादा ट्वीट किए गए।

​​​​​​​Dr. SS Mantha's blog: What will be the culmination of #MeToo? | डॉ एसएस मंठा का ब्लॉगः #MeToo की परिणति क्या होगी?

सांकेतिक तस्वीर

-डॉ एसएस मंठा
मेरा यह लेख किसी व्यक्ति विशेष के बारे में नहीं है, लेकिन यदि कोई इसमें व्यक्ति विशेष की कल्पना करना चाहता है तो वह इसके लिए स्वतंत्र है। इन दिनों ‘मी टू’ अभियान चर्चा में है और लोग अपने-अपने हिसाब से तर्क लगा रहे हैं। 

‘मी टू’ वाक्यांश को सबसे पहले हॉलीवुड अभिनेत्री अलिसा मिलानो ने 15 अक्तूबर 2017 को अपनी आपबीती के साथ ट्वीट किया था और एक ही दिन में इस हैशटैग के साथ पांच लाख से ज्यादा ट्वीट किए गए। फेसबुक पर पहले 24 घंटों के दौरान ही 47 लाख से अधिक लोगों ने 1.2 करोड़ पोस्ट में हैशटैग का इस्तेमाल किया। यह आंदोलन भले ही हाव्रे वाइंस्टीन के खिलाफ यौन र्दुव्‍यवहार के आरोपों से शुरू हुआ हो, लेकिन जल्दी ही सभी महिलाओं के साथ होने वाले यौन र्दुव्‍यवहार की सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति के लिए इसका उपयोग किया जाने लगा। यह हमारे समय की त्रसदी ही है कि अपने नैतिक मूल्यों को बचाने के लिए हमें कार्यस्थल पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन र्दुव्‍यवहार के विरोध में आंदोलन करने की जरूरत पड़ रही है, जबकि इन नैतिक मूल्यों की रक्षा करना हमारे जीवन के ढंग में ही शामिल होना चाहिए था।

‘मी टू’ आंदोलन के महत्व को हालांकि कम करके नहीं आंका जा सकता, लेकिन इसने समाज के सामने कई चुनौतियां पेश की हैं और पूरी व्यवस्था को ही इसने जड़ से हिला दिया है। भले ही इस बारे में सवाल उठाए जाएं कि पीड़ित महिलाओं ने घटना के समय ही शिकायत क्यों नहीं की, लेकिन तथ्य यह है कि ऐसे दर्दनाक अनुभवों को एक या दो दशक बाद भी समाज के सामने बयान करने के लिए पीड़ित को बहुत साहस जुटाने की जरूरत पड़ती है। यह भी हो सकता है कि तब पीड़ित महिलाओं के लिए उनका करियर ही सवरेपरि रहा हो और इसलिए तब उन्होंने आवाज न उठाई हो, लेकिन तब भी उनसे यौन र्दुव्‍यवहार करने वालों का दोष इससे कम नहीं हो जाता।

लेकिन अपराधियों को दंडित करने के लिए न्यायपालिका इस मामले में क्या कर सकती है? एक ऐसी प्रणाली, जो ठोस सबूतों या कई मामलों में परिस्थितिजन्य सबूतों पर निर्भर करती है, शायद इसमें ज्यादा कुछ न कर पाए। तब क्रोध के इस विस्फोट की परिणति क्या है? मीडिया में सामने आ रहे ऐसे मामले क्या वास्तव में कोई हल प्रदान कर सकते हैं या उससे मामले सिर्फ सनसनीखेज ही बनते हैं? कई दशक पहले बॉलीवुड के फिल्म गीतकार आनंद बख्शी ने कुछ पंक्तियां लिखी थीं, जो आज के इस माहौल में सटीक लगती हैं- ‘मेरे दोस्तो तुम करो फैसला, खता किसकी है किसको दें हम सजा?’
(डॉ एसएस मंठा स्तंभकार हैं)

Web Title: ​​​​​​​Dr. SS Mantha's blog: What will be the culmination of #MeToo?

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