बाबासाहब आंबेडकरः सामाजिक जनतंत्र की उदात्त दृष्टि, कलराज मिश्र का ब्लॉग
By कलराज मिश्र | Published: April 14, 2021 04:17 PM2021-04-14T16:17:03+5:302021-04-14T16:18:10+5:30
देश 14 अप्रैल को भारत रत्न बाबासाहब आंबेडकर की 130वीं जयंती मना रहा है. संघर्ष हर पीढ़ी के लिए एक मिसाल बना रहेगा.
बाबासाहब आंबेडकर के चिंतन और उनकी उदात्त दृष्टि पर जब भी मन जाता है, सामाजिक जनतंत्र के लिए किए उनके कार्य जेहन में कौंधने लगते हैं.
यह महज संयोग नहीं है कि संविधान सभा की आखिरी बैठक जब हुई तो बाबासाहब आंबेडकर ने सामाजिक जनतंत्न को ही केंद्र में रख कर अपना उद्बोधन दिया था. उनका कहना था कि जाति प्रथा और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं रह सकते. इसीलिए भारतीय संविधान में ऐसे नियमों की पहल हुई जिनमें देश में किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों के लिए जातीय और भाषायी आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो.
मैं यह मानता हूं कि किसी भी राष्ट्र का निर्माण उसकी परंपराएं, संस्कृति, धर्म, जातियां और भाषाएं मिलकर ही करती हैं. इसलिए राष्ट्रवाद में संकीर्णता का कहीं कोई स्थान नहीं है. संविधान सभा में प्रारूप के प्रावधानों और उनके औचित्य को सिद्ध करने का मुख्य कार्य डॉ. आंबेडकर और अन्य ‘प्रारूप समिति’ सदस्यों पर ही था.
अपने सुयोग्य सहयोगियों के साथ मिलकर संविधान का जो प्रारूप उन्होंने बनाया उसमें देश की परंपराओं, आस्था और विश्वास को एक तरह से उन्होंने स्वर दिया. पर इसमें मूल बात यही थी कि प्रथमत: देश के सभी नागरिक भारतीय हैं और बाद में उनकी कोई और पहचान.
संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर के दिए वक्तव्यों की गहराई में जाएंगे तो यह भी पाएंगे कि वहां राजनीति, कानून, इतिहास, दर्शन का अपूर्व संगम है. किसी एक जाति नहीं बल्कि सभी की समानता का भाव है. नवंबर, 1948 में संविधान के प्रारूप पर विचार करने के लिए उन्होंने अपना प्रस्ताव रखते हुए कहा था कि हमने भारत वर्ष को राज्यों का संघ नहीं बल्कि एक संघ राज्य कहा है.
मैं यह मानता हूं कि डॉ. आंबेडकर भारत में सामाजिक विभक्तिकरण से चिंतित थे इसीलिए उन्होंने कहा कि लोकशाही को हम बनाना चाहते हैं तो हमें अपनी राह के रोड़ों को पहचानना ही होगा क्योंकि जनतंत्न में जनता की निष्ठा की नींव पर ही संविधान का भव्य महल खड़ा हो सकता है.
मुझे लगता है, डॉ. आंबेडकर के विचार वास्तविक रूप में उस राष्ट्रवाद से ही जुड़े हैं जिनमें व्यक्ति और व्यक्तियों के बीच जाति, वर्ण और धर्म में किसी तरह का कोई भेद नहीं है. देश का हर नागरिक सिद्धांतत: समान है. समाज-व्यवस्था और सामाजिक सोच के अंतर्गत हम सभी में समरसता है. इसी से हमारा राष्ट्र अनेकता में भी एकता का उत्कृष्ट उदाहरण है.
भारतीय संविधान की उद्देशिका में भी इसीलिए समस्त नागरिकों के लिए समता व बंधुता की बात कही गई है. डॉ. आंबेडकर ने इस दृष्टि से भारतीयता को भी अपने चिंतन में व्यापक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया है. राष्ट्र निर्माण के लिए उन्होंने भूमि, वहां के समाज और श्रेष्ठ परंपराओं को महत्व देते हुए इस बात पर भी जोर दिया कि राष्ट्र कोई भौतिक इकाई नहीं है.
राष्ट्र भूतकालीन लोगों द्वारा किए गए सतत प्रयासों, त्याग और देशभक्ति का परिणाम है. उन्होंने राष्ट्र को जीवंत बताते हुए कहा भी कि राष्ट्रीयता सामाजिक चेतना है और इसी से व्यक्ति एक-दूसरे के निकट आता है. बंधुता की भावना इसी से विकसित होती है. इसमें संकीर्णता के विचार सबसे बड़ी बाधा हैं.
उन्होंने स्पष्ट कहा कि मैं चाहता हूं कि भारत के सभी लोग अपने आपको भारतीय और केवल भारतीय समङों. यदि किसी कारण से ऐसा नहीं हो पाता है तो हम यह सबसे बड़ा पाप कर बैठेंगे और मैं हमेशा अपने सामथ्र्य के साथ इसका विरोध करता रहूंगा. डॉ. आंबेडकर का चिंतन इसलिए भी गहरे से प्रभावित करता है कि उन्होंने लगभग सभी क्षेत्नों में मौलिक दृष्टि रखते हुए अपने आपको आगे बढ़ाया.
महिला शिक्षा से जुड़े उनके चिंतन पर जाएंगे तो यह भी लगेगा कि महिलाओं को नौकरियों में आरक्षण की पहल के वे एक तरह से पहले सूत्नधार थे. बंबई की महिला सभा को संबोधित करते हुए कभी उन्होंने कहा भी था कि ‘‘नारी राष्ट्र की निर्मात्री है, हर नागरिक उसकी गोद में पलकर बढ़ता है, नारी को जागृत किए बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है.’’
उनका मूल दृष्टिकोण यही था कि कैसे समाज में सभी स्तरों पर समानता की स्थापना हो. इसीलिए उन्होंने समाज को श्रेणीविहीन और वर्णविहीन करने पर निरंतर जोर दिया. उनका यह कथन तो सदा ही मन को आलोकित करता है कि ‘क्रांति लोगों के लिए होती है, न कि लोग क्रांति के लिए होते हैं.’
डॉ. आंबेडकर विराट व्यक्तित्व के थे इसलिए उन्हें किन्हीं संकीर्णताओं में आबद्ध करना उनके व्यक्तित्व को कमजोर करने का प्रयास है. मैं तो बल्कि यह भी मानता हूं कि किसी विशेष वर्ग, जाति से उन्हें जोड़कर देखना भी बौद्धिक दरिद्रता है. वे उदात्त दृष्टि के महापुरुष थे.
राष्ट्र के सर्वागीण विकास से जुड़े उनके चिंतन और राष्ट्र निर्माण में उनकी जो भूमिका रही है, उसमें सभी को समान देखे जाने की उदात्त सोच को व्यापक अर्थो में व्याख्यायित किए जाने की भी जरूरत है. इस बात को भी समझे जाने की जरूरत है कि संविधान में अनुच्छेद 370 भी उनकी इच्छा के विरुद्ध जोड़ा गया जिसे आजादी के 72 वर्षों के बाद हटाया गया है.
उनके समग्र चिंतन और दृष्टि को एकांगी दृष्टि से देखने की बजाय समग्रता से उस पर विचार करने की जरूरत है. डॉ. आंबेडकर के विचारों की समग्रता में जाएंगे तो यह भी लगेगा कि देश की एकता और अखंडता के साथ समानता के बीज वहां पर हैं. समानता और न्याय के साथ बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का उनका दर्शन इसीलिए आज भी प्रासंगिक है और आने वाले कल में भी यह प्रासंगिक रहेगा.