कोरोना लॉकडाउन पर डॉ आशीष दुबे का ब्लॉग: निभानी है दोहरी जिम्मेदारी, ताकि हर कोई कर सके स्टे होम
By डॉ. आशीष दुबे | Published: March 25, 2020 06:22 PM2020-03-25T18:22:53+5:302020-03-25T18:22:53+5:30
मंगलवार को पीएम मोदी ने कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए अभूतपूर्व कदम उठाते हुए पूरे देश में 21 दिनों के लिए लॉकडाउन की घोषित कर दिया, जोकि मंगलवार आधी रात से लागू हो गया।
नागपुर: मंगलवार की रात एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र को संबोधित कर रहे थे. दूसरी ओर कई लोग अपने घरों में सामान बांधने की तैयारी में जुटे हुए थे. यह वे लोग थे जो अपना गांव छोड़कर शहर में मजदूरी करने आए थे. कोरोना वायरस के संक्रमण को देखते हुए की वजह से हर तरफ लॉकडाउन हो गया. 14 मार्च को महाराष्ट्र समेत देश के कई राज्यों में सरकार ने कड़ाई से फैसले लागू करना शुरू कर दिया.
दूर-दराज के गांव से आए मजदूरों को यही लगा कि शायद यह कुछ ही दिनों की बात है. बात में स्थिति सामान्य हो जाएगी. उनकी यह उम्मीद 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा के बाद खत्म हो गई. उनके सामने एक ही सवाल खड़ा है कि आखिर इन 21 दिनों में करेगे क्या. परिवार का पालन-पोषण कैसे होगा. दो जून की रोटी का जुगाड़ कैसे होगा. वह भी पूरे 21 दिन.
इन सवालों के जवाब के तौर पर उन्हें यही बेहतर लग रहा है कि क्यों न घर का रुख किया जाए. फैसले के बाद 24 मार्च की रात को मजदूरों ने शहर छोड़ गांवों का रुख करना शुरू कर दिया. रात के वक्त दफ्तर (लोकमत समाचार) से घर जाते वक्त मुझे नेशनल हाइवे नंबर 44 नागपुर-जबलपुर मार्ग पर ही दृश्य नजर आया. समूह में लोग सिर पर गठरी रखकर धीरे-धीरे गांव की ओर निकलना शुरू कर दिया. कुछ रास्ते में बैठे हुए थे. उनके मन उम्मीद की किरण थी कि शायद कोई साधन जरूर मिल जाए. हाइवे से गुजरने वाले वाहन को देखकर खड़े हो जाते. हाथ से रुकने का इशारा करते.
वाहन आगे की ओर बढ़ जाता. वे फिर निराश होकर सड़क किनारे बैठ जाते. इन मजदूरों के साथ बच्चे व महिलाएं भी थी. उन्हें चिंता सता रही थी कि गांव पहुंच पाएंगे भी या नहीं. जिरो माइल से मेरा घर 16 किमी की दूरी पर है. इतने लंबे रास्ते पर एक भी चौराहा. एक भी रास्ता ऐसा नजर नहीं आया जहां. गांव जाने के लिए बैठा कोई परिवार नजर नहीं आया हो. कुछ ऐसे भी थे जो आगे बड़े जा रहे थे. धीरे-धीरे गांव की दूरी को तय करते चले जा रहे थे. उस वक्त रात के 11.30 बजे हुए थे. लिहाजा हर कोई घर में चैन से सो रहा था. मजदूरों का परिवार गांव की ओर लौटने के लिए तेजी से कदम बढ़ा रहा था.
यह पूरा मार्मिक दृश्य देखकर मन में सवाल उठा कि क्या हम सामाजिक दूरियां बनाते बनाते इतने दूर हो गए कि हम इन परिवारों के बारे में सोच नहीं पा रहे. कोरोना वायरस के संक्रमण को देखते हुए सामाजिक दूरियां बनाईए. लेकिन क्या समाज के उन लोगों के प्रति हमारा कोई दायित्व नहीं है जो दो जून की रोटी के जुगाड़ में दिन रात मेहनत करता है.
हम खुद को घर सुरक्षित रखने के सारे इंतजाम कर लिया है. क्या इन परिवारों को भी सुरक्षित रखने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है. यह पूरे देश के लिए संकट का समय है. संकट की इस घड़ी में हमें अपने साथ-साथ अपने आसपड़ोस व शहर के ऐसे लोगों का भी ख्याल रखना चाहिए जो गरीब है. दिव्यांग है. जो रोटी, कपड़ा व मकान जैसी बुनियादी सुविधा के लिए दिन रात मेहनत करते है. यह केवल नागपुर या फिर महाराष्ट्र के लिए नहीं है. बल्कि देश के हर शहर, हर राज्य के लोगों की जिम्मेदारी है जो हर मामले में संपन्न है. यदि हम अपने राष्ट्रीय दायित्व के साथ ही सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करें तो किसी भी परिवार को शहर छोड़कर गांव का रुख नहीं करना पड़ेगा.