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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः अंधकार से मुक्ति कैसे मिले?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 7, 2018 06:08 IST

गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी तरह के अपने तम को मिटाने के लिए भगवान राम का गुणगान किया था।  आज की  समस्या यह है कि वह तम या अंधकार जिसके चलते निजी और सामाजिक जीवन में आए दिन कपट, छल, छद्म, धोखा और हिंसा के बवंडर उठते रहते हैं उनका स्वरूप ऊपर से इतना मोहक और आकर्षक लगता  है कि हर कोई उनके जाल में  आसानी से फंस जाता है।

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गिरीश्वर मिश्र

दिवाली प्रकाश पर्व है। इस दिन हम घर के कोने-कोने को साफ सुथरा कर दीये की रोशनी से प्रकाशित करते हैं। हमारी यही कोशिश रहती है कि घर का कोई स्थान प्रकाशित होने से छूट न जाए। जगमग रोशनी सबके मन को भाती है। बच्चे खास तौर पर रोशनी, फुलझड़ी आदि का खूब मजा लेते हैं। रोशनी में नहाए सभी तरोताजा और ऊर्जा से भरा अनुभव करते हैं। प्रकाश हमारा मार्गदर्शन करता है और गंतव्य की ओर जाना सरल कर देता है। इसके विपरीत अंधेरा तामसिक प्रवृत्ति का होता है, निष्क्रियता का द्योतक है। प्रकाश की गैरमौजूदगी में जब घना अंधेरा छाने लगता  है तो  आंखों को कुछ सूझता  नहीं। इस अंधियारे से बचने के लिए हम प्रकाश की व्यवस्था कर लेते हैं। पर भौतिक धरातल से परे हमारे मन के अंदर भी अंधेरा छाया रहता है। मोह, ईष्र्या, द्वेष, बैर, स्पर्धा, द्वंद्व, दम्भ, पाखंड और घृणा  के भाव हमारे मानस में उपजने वाले अंधकार के ही विविध रूप हैं।  गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी तरह के अपने तम को मिटाने के लिए भगवान राम का गुणगान किया था।  आज की  समस्या यह है कि वह तम या अंधकार जिसके चलते निजी और सामाजिक जीवन में आए दिन कपट, छल, छद्म, धोखा और हिंसा के बवंडर उठते रहते हैं उनका स्वरूप ऊपर से इतना मोहक और आकर्षक लगता  है कि हर कोई उनके जाल में  आसानी से फंस जाता है। अंधेरा छंटने का नाम ही नहीं ले रहा। हम अपने अस्तित्व को शरीर तक ही सीमित करते जा रहे हैं जो स्पष्टत: नश्वर है। उसी में चेतना या आत्मा का वास मान बैठते हैं। स्थूल भौतिक शरीर की सत्ता की सीमा है। हमारा होना उससे स्वतंत्न भी है।  

वास्तविकता तो यह है कि शरीर संसार का है और कर्म का साधन है और उसी के लिए संसार की ओर उन्मुख होता है। कर्म से विरत हों तो शरीर की कोई जरूरत ही नहीं पड़ेगी।  शरीर से निकटता अस्थायी होती है क्योंकि वह नष्ट होने वाली वस्तु है। आज हम सब अधिकार पाने की होड़ में लगे हैं। अधिकार की लालसा न केवल कर्तव्य से दूर ले जाती है बल्कि काम, क्रोध और लोभ की ओर प्रवृत्त करती है और संघर्ष को जन्म देती है। हमारी सत्ता तो चिन्मय स्वरूप की है और कर्ता या भोक्ता होना शरीर के स्वभाव से जुड़ा है। शरीर में रह कर भी हम शरीर नहीं हैं।

अपने लिए सुखलोलुप होना ही सारी समस्या के मूल में है। सारा कोलाहल उसी के कारण है। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण शांति पाने के लिए निरहंकार होने के लिए कहते हैं : ‘निर्ममो निरहंकार: स शांतिमधिगच्छति’। जब कोई ममत्वरहित और निष्काम होता है तब उसका अहंता का भाव विगलित हो जाता है। यदि अहंता का भाव गया तो व्यक्ति मुक्त हो जाता है। दूसरी ओर अहंता के भाव से अपने लिए कुछ करना हमें पराधीन बनाता है। इसलिए सेवा और त्याग करने पर बल दिया गया। कल्याण चाहने वाले के लिए नि:स्वार्थ होना ही एक मार्ग बचता है। समाज की उन्नति और प्रगति सेवा और दूसरों की भलाई से ही हो सकेगी। लोक की सेवा से ही आलोक मिलेगा और अंधकार मिटेगा। 

टॅग्स :दिवाली
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