कोरोना से लड़ाई जीतने तक सावधानी बरतना सबका दायित्व, विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग
By विश्वनाथ सचदेव | Published: April 14, 2021 05:40 PM2021-04-14T17:40:50+5:302021-04-14T17:41:48+5:30
देश में कोरोना वायरस के एक दिन में सामने आ रहे मामलों में 82.04 प्रतिशत मामले महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और केरल समेत 10 राज्यों से आ रहे हैं.
नए संवत्सर की शुरुआत, गुढ़ीपड़वा, बैसाखी, बाबासाहब आंबेडकर जयंती, उगादी..त्योहारों का मौसम है यह.
वैसे भी हम भारतीय उत्सव प्रेमी हैं, जीवन को एक उत्सव की तरह जीने का दर्शन हमारी विरासत है. पर इस बार यह उत्सवधर्मिता कुछ फीकी-फीकी सी है. कोविड-19 के आतंक का काला साया सारे भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में छाया हुआ है. स्थिति को नियंत्नण में रखने की सारी कोशिशें कम पड़ती दिख रही हैं.
करोना की यह दूसरी लहर, सुनामी कहना चाहिए इसे, खतरनाक तो है ही, हमारे लिए एक चेतावनी भी है कि हम नहीं संभले तो संकट और गहरा हो जाएगा. इस लगातार गहराते संकट के बीच एक और दृश्य भी उभर कर सामने आ रहा है. संकट का तकाजा था कि हम आवश्यक सावधानियों का शत-प्रतिशत पालन करें. और आलम यह है कि हम चेहरे पर मास्क लगाने जैसी शर्त भी पूरी करने को तैयार नहीं हैं.
‘दो गज दूरी, मास्क जरूरी’ का नारा हमारे प्रधानमंत्नी ने साल भर पहले दिया था, पर लग रहा है जैसे आम भारतीयों को इस जरूरत का अहसास ही नहीं है. मास्क न लगाने वालों पर जुर्माने के आंकड़े पुलिस की उपलब्धि की तरह पेश किए जा रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि यह स्थिति हमारी शर्म का एक उदाहरण है.
इस दृश्य के साथ जुड़ी एक हकीकत यह भी है कि विश्व का सबसे बड़ा मेला, महाकुंभ भी चल रहा है. आस्था के महत्व को नहीं नकारा जा सकता, पर क्या यह कल्पना अपने आप में भयावह नहीं है कि हरिद्वार में गंगा में आस्था की डुबकियां लगाने वाले ये लाखों लोग जब अपने-अपने घरों को लौटेंगे तो न जाने कितना संक्रमण अपने साथ लेकर जाएंगे?
यदि इनमें से एक भी आदमी कोविड से संक्रमित होता है तो वह कितनों को बीमार बना देगा, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल हैं. सवाल सिर्फ महाकुंभ का ही नहीं है, धार्मिक विश्वास के नाम पर होने वाले विभिन्न धर्मो के उत्सव भी कोविड के संकट को बढ़ाने वाले ही सिद्ध हो रहे हैं. हकीकत यह है कि भगवान भी उन्हीं की सहायता करता है, जो स्वयं अपनी सहायता करने के प्रति जागरूक होते हैं.
दुर्भाग्य से यह जागरूकता कहीं दिखाई नहीं दे रही. एक और उत्सव भी चल रहा है इन दिनों देश में. प्रजातंत्न का उत्सव. देश के चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव प्रक्रिया जारी है. गनीमत है कि अब सिर्फ बंगाल बचा है जहां मतदान हो रहा है. कुछ दिन में यह भी पूरा हो जाएगा. पर हमारे नेताओं, राजनीतिक दलों और मतदाताओं ने जिस तरह से प्रजातंत्न का यह उत्सव मनाया है, वह डराने वाला है.
हजारों की भीड़-भरी चुनावी रैलियां, लाखों की भीड़ का दावा, चुनावी सभाएं भले ही चुनाव में जीत का अवसर बनाने वाली हों, पर देश के मौजूदा हालात में प्रजातंत्न का यह उत्सव भयभीत ही कर रहा है. इस चुनावी दंगल में जीत-हार तो परिणाम ही बताएंगे, पर हकीकत यह है कि इसके चलते सावधानी बरतने की लड़ाई हम हार चुके हैं और इस हार के लिए हमारा राजनीतिक नेतृत्व सबसे ज्यादा उत्तरदायी है.
किसी भी राजनीतिक दल को, और किसी भी राजनेता को यह नहीं सूझा कि इस बार की विशेष स्थितियों को देखते हुए चुनाव-प्रचार का तरीका बदल दिया जाए. उल्टे बड़ी से बड़ी सभाओं के दावे करके अपनी ताकत दिखाने की कोशिश हर नेता करता रहा. बिना मास्क लगाए हजारों की भीड़ के नारे हमारे नेताओं को जैसे उनकी ताकत का अहसास करा रहे थे.
दायित्वहीनता की यह कहानी वस्तुत: जनतंत्न के उत्सव की पराजय की कथा है. यह सही है कि चुनाव आयोग ने अपनी तरफ से कोविड-आचरण की नियमावली जारी की थी, पर उसे एक रस्म अदायगी की तरह ही देखा गया. भले ही दो-चार बड़े नेताओं के खिलाफ कुछ कार्रवाई हुई हो, पर एक भी मामला ऐसा नहीं दिखा जिसमें किसी नेता को इस बात के लिए फटकारा तक गया हो कि उसने अपने श्रोताओं को, जिन्हें वह अपना समर्थक कहता है, मास्क लगाने या सामाजिक दूरी बनाए रखने का निर्देश दिया हो. किसी ने यह आग्रह तक नहीं किया ऐसा करने के लिए.
नेतृत्व का दायित्व है कि वह खतरे को कम करने के प्रति जनता को आगाह करे. सिर्फ बातों से नहीं, अपने निर्णयों से कोविड से लड़ने का उदाहरण प्रस्तुत करे. चुनाव आयोग भी चाहता तो खतरे को देखते हुए विशाल चुनावी सभाओं और जुलूसों पर प्रतिबंध लगा सकता था. यहां भी राजनीतिक दल और हमारे बड़े नेता अपना दायित्व निभाने से चूक गए- काश, वे ही चुनाव आयोग से ऐसा कोई आग्रह करते. उत्सव तो तब मनेगा जब हम कोरोना के खिलाफ लड़ाई जीतेंगे. कब जीतेंगे हम यह लड़ाई?