क्या अब विपक्ष के विकल्प की तलाश है !, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: November 24, 2020 01:43 PM2020-11-24T13:43:08+5:302020-11-24T13:45:07+5:30
कांग्रेस में कई बड़े नेता एक-दूसरे के खिलाफ हमला कर रहे हैं। बिहार चुनाव को लेकर कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद शीर्ष नेतृत्व पर सवाल कर रहे हैं। वहीं अधीर रंजन चौधरी, सलमान खुर्शीद सहित कई नेता जवाब दे रहे हैं।
कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता आपस में तलवार भांज रहे हैं. एक वर्ग नेतृत्व से पार्टी के लिए कुछ करने के सवाल उठा रहा है तो दूसरा उस वर्ग की सवाल उठाने के लिए आलोचना कर रहा है.
अपनी-अपनी जगह दोनों धड़ों की बात जायज है. नेतृत्व खामोशी से देख रहा है. लेकिन सियासी शतरंज की अनोखी बात यह है कि देश को अब गंभीरता से विपक्ष के विकल्प की तलाश है. सत्तारूढ़ दल के हाथों में लड्डू ही लड्डू हैं. दरअसल कांग्रेस इतिहास के रास्ते में उस पड़ाव पर आकर खड़ी हो गई है, जहां से रास्ता आगे नहीं जाता.
अब उसके सामने दो विकल्प ही बचते हैं. या तो इसी स्थान पर खड़े-खड़े अपने को विसर्जित कर दे या फिर पीछे लौट जाए, अपनी भूलों से सबक ले और अपने आपको नए सिरे से गढ़े. पर, दोनों विकल्प ही आसान नहीं हैं. यदि पार्टी वर्तमान हालात में अदृश्य हो जाए या साफ कहा जाए कि किरच-किरच बिखर जाए तो भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे अधिक कलंकित अध्याय दूसरा नहीं हो सकता.
पार्टी के प्रथम परिवार के लिए यह अभिशाप से कम नहीं होगा. बताने की जरूरत नहीं कि कांग्रेस संसार की सबसे पुरानी पार्टियों में से है. स्वतंत्रता आंदोलन में सामाजिक सोच की सारी धाराएं इस बैनर तले एकत्र हो गई थीं. गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल, दादाभाई नौरोजी, मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, नेहरू, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, पुरुषोत्तम दास टंडन, के. कामराज, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी तथा क्रांतिकारियों के लंबे सिलसिले की परवरिश करने वाले दल का नेतृत्व इतना विकलांग नजर आने लगे तो क्या अर्थ लगाया जाए ?
यह कि डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले महादेश से पार्टी डेढ़ सौ काबिल लोग भी नहीं निकाल पा रही है. किसी पौधे से नई कोंपलें निकलनी बंद हो जाएं या पेड़ से नई शाखाएं नहीं फूटें तो समझ लीजिए कि पौधे या वृक्ष ने अंतिम सांसें लेनी शुरू कर दी हैं. नेतृत्व का नया झरना नहीं बहने की स्थिति का अर्थ यह भी लगाया जाना चाहिए कि अवाम ने जम्हूरियत के बारे में चिंता करना छोड़ दिया है.
यह बेहद खतरनाक संकेत है. विडंबना है कि गुलामी के दिनों में जब गोरी हुकूमत का खौफ चरम पर था तो एक से बढ़कर एक आला दर्जे के नुमाइंदे मुल्क को मिलते रहे और आज स्वराज के सत्तर साल बाद हम मुखियाओं का अकाल ङोल रहे हैं. हम अधिक साक्षर हुए हैं, जागरूक भी बने हैं, अच्छे डॉक्टर और इंजीनियर पैदा कर रहे हैं, अधिकारी निकाल रहे हैं मगर समर्पित राजनेताओं की फसल नहीं उपज रही है. यानी लोकतंत्र की बांझ होती धरती अब अपने विनाश पर ही उतारू है. कह सकते हैं कि इस हाल में यह विराट देश कांग्रेस को अपने विसर्जन की इजाजत नहीं दे सकता.
दूसरा विकल्प है कि कांग्रेस पीछे लौटे, इतिहास की भूलों से सबक ले और अपनी पुनर्रचना करे. अपने को नए सिरे से गढ़ने का काम बेहद मुश्किल होता है, लेकिन कांग्रेस को यह करना ही पड़ेगा. यह रास्ता लंबा है. दो-चार बरस में ही तय होने वाला नहीं है. केवल चुनाव जीतकर सरकार का सपना देखने वाले नेताओं की जरूरत इस शिल्पी को नहीं होनी चाहिए. धीरज और संयम के साथ सारे देश की ऊसर जमीन को नई पौध के लिए तैयार करना होगा. अगर इस संकल्प के साथ पार्टी के तथाकथित नियंता तैयार हों तभी शरशैया पर लेटा यह दल खुद को जीवनदान दे सकता है.
उत्तर प्रदेश हो या बिहार, तमिलनाडु हो या आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश हो या दिल्ली-कमोबेश सभी जगहों पर संगठन और महारथी हांफते-हांफते दम तोड़ गए. जिस राष्ट्रीय बरगद पर अनेक छोटी-छोटी परजीवी बेलें पलती थीं, अब वही बरगद लंबी टहनी के रूप में सहारे के लिए प्रादेशिक बेलों की ओर हसरत से ताक रहा है. इससे आशंका को बल मिलता है कि अब इस विराट और प्राचीन पार्टी का निर्वाण सुनिश्चित है.
क्या अब देश को कांग्रेस के बिना जीने की आदत डालनी होगी ? और सच तो यह है कि प्रादेशिक स्तर पर क्षेत्रीय दलों के सहारे नागरिकों ने जीना सीख लिया है, पर इससे अखिल भारतीय प्रतिपक्ष की कोई पहचान नहीं बची है, जिसके सहारे यह राष्ट्र जी सके. यकीनन राष्ट्रीय चरित्र के लिए यह फायदेमंद नहीं है. इसलिए विपक्ष को रचने के लिए आम जनता को विश्वकर्मा भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए. हम विरोध के स्वरों की हत्या करके लोकतंत्र को निरंकुश अधिनायक तंत्र में तब्दील होते नहीं देख सकते.
अब लोगों को एकत्रित करने वाला न गांधी हमारे बीच हैं, न नेहरू, सुभाष, इंदिरा या जयप्रकाश नारायण दिखाई देते हैं. अब यह काम हर हिंदुस्तानी का है, जिसे गणतंत्र की सेहत के लिए सामने आना ही होगा. दो-चार पीढ़ी डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, वकील या प्रोफेसर नहीं निकले तो समाज बचा रहेगा, पर अगर राजनीतिक समर्पित कार्यकर्ता नहीं निकले तो देश के लोकतांत्रिक ढांचे के बचने की कोई गारंटी नहीं है.