China-Pakistan-Bangladesh: अंतरराष्ट्रीय घेराबंदी और हमारी खामोशी, सियासी सोच को क्या हो गया?
By राजेश बादल | Published: December 11, 2024 05:18 AM2024-12-11T05:18:46+5:302024-12-11T05:18:46+5:30
China-Pakistan-Bangladesh: संसद के दोनों सदनों में अभी तक इस बारे में कोई चिंता नहीं दिखाई दी है. (वैसे चिंता तो तब नजर आए,जब दोनों सदनों में कार्रवाई सुचारू रूप से चले ).
China-Pakistan-Bangladesh: भारत के सिर पर यानी उत्तर में चीन का रवैया छिपा नहीं है. अब उसने पाकिस्तान को मोहरा बनाकर उत्तर के साथ पूर्व में बांग्लादेश को भारत का कट्टर विरोधी बनाकर करारा झटका दिया है. हमारी सियासी सोच को क्या हो गया है? अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां हिन्दुस्तान के लिए दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही हैं. एक के बाद एक हमारे पड़ोसी राष्ट्र चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं और हम खामोश हैं. हमारी संसद के दोनों सदनों में अभी तक इस बारे में कोई चिंता नहीं दिखाई दी है. (वैसे चिंता तो तब नजर आए,जब दोनों सदनों में कार्रवाई सुचारू रूप से चले ).
मुल्क की इस सर्वोच्च पंचायत में मोहल्ला या नगरपालिका स्तर के विषयों पर हमारे जन प्रतिनिधि सिर पर संसद उठा लेते हैं लेकिन उन हालातों पर उनकी सोच और जबान पर ताला लग जाता है, जो भारतीय लोकतंत्र को ग्रहण लगाने वाले होते हैं. वे समझते हैं कि देश को अखंड और सुरक्षित बनाए रखने की जिम्मेदारी केवल सेना,नौकरशाही और थोड़ी बहुत सरकार की है.
संसद के दोनों सदनों के सचिवालय प्रत्येक नए सांसद को सदन के भीतर की कार्यशैली समझाने कार्यशालाएं आयोजित करते हैं. मगर, हिन्दुस्तान की रक्षा और विदेश नीति के पेंचों को समझाने के लिए आयोजन नहीं होता. जाहिर है इन जन प्रतिनिधियों की ओर से सदनों में वैदेशिक मामलों को उठाने वाले सवाल भी न्यून ही होते हैं.
विदेश और रक्षा भी छोड़ दें तो कितने संसद सदस्य ऐसे हैं, जो औद्योगिक परिवेश,कृषि क्षेत्र के बारीक मुद्दे ,जंगल से लेकर विज्ञान,शिक्षा और अंतरिक्ष से लेकर आदिवासियों के बारे में अध्ययन करते हैं और सवाल उठाते हैं. इसका उत्तर भी निराशाजनक है. एक संसद की कुर्सी पर 50000 रुपए की गड्डी पर वे तमाशा खड़ा कर सकते हैं.
उसे केंद्र में रखकर मुख्य विषय से संसद को भटका सकते हैं, पर गंभीर मामलों पर उनका ध्यान नहीं जाता. घरेलू मसले उन्हें नहीं दिखते. महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर वे मुंह नहीं खोलना चाहते. लेकिन भारत के पास पड़ोस का घटनाक्रम भी उन्हें नहीं नजर आता. चाहे वह भारत को दूरगामी दृष्टि से परेशानी में डालने वाला हो.
चंद उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करता हूं. भारत के सिर पर यानी उत्तर में चीन का रवैया छिपा नहीं है. अब उसने पाकिस्तान को मोहरा बनाकर उत्तर के साथ पूर्व में बांग्लादेश को भारत का कट्टर विरोधी बनाकर करारा झटका दिया है. इन दिनों बांग्लादेश को भारत फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है.
जिसकी कोख से वह निकला और जिसके कारण उसका आज अस्तित्व है,उसी पर हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहा है. यह हमारे राजनयिकों के लिए कोई पहेली नहीं होनी चाहिए कि बांग्लादेश अपने दम पर यह नहीं कर रहा है. निश्चित रूप से इसके पीछे एक महाशक्ति है. शेख हसीना उसके बारे में खुलासा कर चुकी हैं.
इसके बाद अमेरिका के पिछलग्गू ब्रिटेन ने एक बड़ा फैसला किया है. यह निर्णय किंग चार्ल्स ने किया है. उन्होंने भारतीय समुदाय के दो नेताओं को दिए सम्मान वापस ले लिए हैं. इनमें से एक बांग्लादेशी हिंदुओं के लिए बात करने के कारण शिकार बना और दूसरा भारतीय प्रधानमंत्री का समर्थन करने के कारण किंग चार्ल्स का कोप भाजन बना.
ब्रिटेन में भारतीय मूल की यह दो प्रमुख शख्सियत रामी रेंजर और हिंदू काउंसिल यूनाइटेड किंगडम के प्रबंध न्यासी अनिल भनोत हैं. दोनों से यह सम्मान वापस ले लिए गए हैं. तीन दिन पहले ‘लंदन गजट’ में यह घोषणा की गई है. दोनों से अपना प्रतीक चिन्ह बकिंघम पैलेस को लौटाने के लिए कहा जाएगा. रेंजर और भनोट ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया है.
यह एक ताजी घटना है, लेकिन सीधी बात यह है कि ब्रिटेन भी जो बाइडेन के पीछे खड़ा है, जिन्होंने एक द्वीप अमेरिका को नहीं सौंपने के कारण शेख हसीना की सरकार गिराने का प्रपंच रचा था. अब वहां मंदिरों पर हमले हो रहे हैं, मूर्तियां तोड़ी और जलाई जा रही हैं तथा अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहे हैं.
पाकिस्तान के लोगों को बिना सुरक्षा जांच के बांग्लादेश में प्रवेश की इजाजत दे दी गई है और भारतीयों की संख्या में कटौती कर दी गई है. कटौती सरकार के सामने शायद अगला संकट यही होगा कि वह बांग्ला भाषा कैसे छोड़े ? यह तो भारतीय भाषा है. लेकिन इस मसले पर हमारी संसद खामोश है. अब नेपाल की बात करते हैं.
नेपाल की चीन परस्त सरकार ने हाल ही में चीन की बेल्ट एंड रोड योजना में शामिल होने की मंजूरी दे दी है. पांच दिन की यात्रा के बाद नेपाली प्रधानमंत्री चीन से लौटे हैं. यह नेपाल सरकार की विदेश नीति में बड़ा परिवर्तन है. नई सरकार आने के बाद यह चीन के दबाव और प्रभाव में है. क्या भारत की संसद में कभी एक मिनट भी चर्चा की गई कि भारत के इर्द गिर्द घेराबंदी के पीछे किन राष्ट्रों का हाथ है.
भारत के लोग किस तरह इसका मुकाबला कर सकते हैं. यह संसद का वह रूप है ,जो किसी बौद्धिक भारतीय को पसंद नहीं आएगा. यह अफसोसजनक है कि भारतीय संविधान के 75 वें वर्ष में संसद का यह सत्र ऐसे उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है, जिसमें संविधान बनाने वालों की मंशा का आदर नहीं दिखाई देता. क्या अभी भी हमारे जन प्रतिनिधि कोई सबक लेंगे ?