अब वे जंगल डराते नहीं, लुभाते हैं

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: August 28, 2018 02:06 IST2018-08-28T02:06:27+5:302018-08-28T02:06:27+5:30

समूचे छत्तीसगढ़ की, खासकर बस्तर, अबुझमांड, जगदलपुर या दंतेवाड़ा, जो आतंक की त्नासदी में दशकों जीने को मजबूर बने रहे, पर अब नहीं।  

chhattisgarh Naxal: Now they do not scare the forest | अब वे जंगल डराते नहीं, लुभाते हैं

अब वे जंगल डराते नहीं, लुभाते हैं

एन के सिंह  
अभी चंद वर्षो पहले तक जो हाथ नक्सलियों की कंगारू कोर्ट में सरेआम तड़प कर मरने से बचने या अपने परिवारों की महिला सदस्यों से बलात्कार होते देख जां-बख्शी की भीख मांगने के लिए उठते थे, वे हाथ आज सहकारी समिति के माध्यम से सामूहिक रूप से पाश्चराइजेशन प्लांट में अपने दूध को बेचने या अपने परंपरागत जैविक खेती के चावल को मुंबई और चेन्नई के पांचतारा होटलों में बड़ी-बड़ी कंपनियों के जरिए सहकारी समितियों के जरिए सप्लाई करने के लिए उठते हैं।  ‘टैग लाइन’ होती है- टेस्ट द ट्रेडिशन। 

बात है समूचे छत्तीसगढ़ की, खासकर बस्तर, अबुझमांड, जगदलपुर या दंतेवाड़ा, जो आतंक की त्नासदी में दशकों जीने को मजबूर बने रहे, पर अब नहीं।  यह अकेला राज्य है जिसमें अनाज का उत्पादन ही नहीं, उत्पादकता भी बढ़ी है - यानी लागत कम, अनाज ज्यादा।  आज से कुछ वर्ष पहले तक छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा या जगदलपुर जिले का नाम सुनते ही शरीर में झुरझुरी फैलती थी।  

आज स्थानीय अखबारों में खबर दिखती है कि अमुक गांव में एक दो नक्सलियों ने मोबाइल छीना।  स्थानीय मीडिया भी नक्सली व औसत अपराधी को समानार्थी समझने लगा है।  

सरकार ने अपनी कुछ प्रचार सामग्री छापी है लेकिन चूंकि यह सरकारी ज्ञान है जिस पर सहज विश्वास करना मुश्किल होता है, इसलिए किसी हाईवे के पास के गांव में जाएं।  सड़क से ही ये आदिवासी महिलाएं एक हाथ और एक सिर पर, दो-दो खाना पकाने वाला गैस सिलेंडर लेकर पगडंडियों में उतरती मिलेंगी।  चेहरे पर ‘भौंचक खुशी’।  पूछिए तो टूटी-फूटी हिंदी में कहेंगी - सरकार ने दिया।  जलाना आता है, का जवाब हंस कर होता है - घर जा कर किसी से पूछेंगे।  

प्रचार सामग्री वाले बुकलेट के अंतिम पेज पर इसके जारी करने की तारीख और वर्ष भी होता है।  यह पुस्तिका नवंबर, 2016 में जारी हुई थी।  इसमें जिस युवा कलेक्टर का इक्का-दुक्का फोटो छपा है आज भी दो साल बाद वही कलेक्टर हमसे बात कर रहा है।  यानी विकास की पहली शर्त सत्ता के शीर्ष पर बैठा राजनीतिक वर्ग अफसरशाही को ताश के पत्ते की तरह न फेंटे।   

दूसरा यह कि राज्य का मुखिया मजबूत और विकास परक हो और वह भी कार्यकाल के स्थायित्व के साथ।  छत्तीसगढ़ में पिछले युवा आईएएस अधिकारियों में आज इस बात की होड़ लगी है कि कौन विकास के नए विचार अमल में लाता है, विकास के 31 पैरामीटर्स पर कौन जिलाधिकारी इस माह किससे आगे या पीछे रह गया है।    

गहराई से देखें तो एकल -आयामी विकास संभव ही नहीं है।  जिस दंतेवाड़ा में पांच साल पहले तक गैर-दंतेवाड़ा इलाके के लोग शादी नहीं करते थे इस डर से कि जिंदा रहना इस इलाके में ईश्वर की नहीं ‘दलम’ (नक्सल टोली) की मर्जी पर है वे आज यहां के मॉडल पर अपने जिलों में खेती करने लगे हैं। 

 इस राज्य में साक्षरता (78 प्रतिशत) राष्ट्रीय औसत (65। 7) से ज्यादा, कुपोषण कम और संस्थागत डिलीवरी (80 फीसदी) के कारण बाल-मृत्यु दर देश के अन्य राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कुछ हद तक हरियाणा को मुंह चिढ़ाती है।  

विकास बहुआयामी होता है।  अक्सर सकल घरेलू उत्पाद भले ही बढ़ता रहे, असली विकास का पैमाना मानव विकास सूचकांक रसातल में बैठा रहता है।  अगर सड़कें न हों तो राज्य की कल्याणकारी योजनाओं में मिलने वाला लाभ नहीं पहुंचा सकता। 

 अगर बिजली न हो पाठशाला न हो और न ही रोजगार के साधन या आय के साधन हों तो सड़कों पर सिर्फ अफसर और मंत्नी चलेंगे, मंचों से विकास की झूठी कहानी कहते हुए।  छत्तीसगढ़ में सिर  पर मुफ्त का 35 किलो अनाज का गट्ठर लिए या बहंगी-नुमा बांस के दोनों ओर दो गैस सिलेंडर लादे किसी किशोर वय की लाखमे, सोमारी या कोसी को देख कर लगता है यह विकास यात्ना कुछ अलग है।  

और यह संभव शायद नहीं होता अगर युवा पुलिस अधिकारियों ने रणनीतिक परिवर्तन न किया होता।  इस प्रश्न पर कि सड़कों पर इस बीहड़ जंगल में भी पुलिस नहीं दिखाई दे रही है और क्या कहीं यह आत्ममुग्धता तो नहीं है या फिर पुलिस का अभाव है, दंतेवाड़ा के युवा अधीक्षक का कहना है, ‘‘नहीं, अब पुलिस आप को ही नहीं, नक्सलियों को भी दिखाई नहीं देती बस उन्हें गोली की आवाज सुनाई देती है और उनके समझने के पहले वे इसका शिकार हो चुके होते हैं। ’’   

सुरक्षा सिद्धांतों में इस रणनीति को ‘अनओबट्रयूसिव’ (अदृष्टिगोचर) सिक्योरिटी कहते हैं।  पहले जहां जंगल के ऊंचे टीलों से ये जवानों को शिकार बनाते थे, आज पुलिस का उन ठिकानों पर कब्जा है।  डरकर नक्सली या तो मौत के डर से मुख्यधारा में जुड़ने लगे हैं या फिर अंदर जंगलों में तिल-तिल कर मर रहे हैं। 

 अब इन अदिवासियों पर भी उनका खौफ जाता रहा है।  पुलिस अधीक्षक से यह मुलाकात अचानक ही थी लेकिन बड़े भरोसे से उन्होंने कहा ‘‘आप जहां हैं सिर्फ थोड़ी दूर घने जंगलों में नजर डालें, आपको पुलिस की अदृश्य लेकिन सतर्क मुस्तैदी का अहसास हो जाएगा। ’’ और यह सच था।  

Web Title: chhattisgarh Naxal: Now they do not scare the forest

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