ब्लॉग: संसद व संविधान से लेकर सरोकारों की चुनौती

By राजेश बादल | Published: June 11, 2024 10:09 AM2024-06-11T10:09:52+5:302024-06-11T10:13:02+5:30

भारत के लोग उम्मीद कर सकते हैं कि संसद और संविधान की सर्वोच्चता का सभी दल सम्मान करेंगे। बीते दिनों मैंने इसी पृष्ठ पर लिखा था कि भारी बहुमत वाला एकतरफा जनादेश किसी भी गणतंत्र के लिए खतरे से खाली नहीं होता। पक्ष हमेशा बहुमत पर गर्वोन्मत्त रहता है और विपक्ष अपने बौनेपन के कारण अवसादग्रस्त रहता है। 

challenges of concerns for Parliament or Constitution | ब्लॉग: संसद व संविधान से लेकर सरोकारों की चुनौती

फोटो क्रेडिट- (एक्स)

Highlightsपिछली बार लोकसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए किस तरह जद्दोजहद हुईबड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को संसदीय भूमिका निभाने का अवसर आसानी से नहीं मिलाइस बार सरकार विपक्ष के सवालों की उपेक्षा नहीं कर सकती

जवाहरलाल नेहरू के तीन बार लगातार प्रधानमंत्री बनने के कीर्तिमान की बराबरी करने वाली गैरकांग्रेसी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने काम संभाल लिया है। हालांकि तीसरी बार अपने दम पर भाजपा को बहुमत नहीं मिला, जो नेहरू सरकार को हासिल था इसलिए कीर्तिमान की चमक तनिक धुंधलाई हुई है। मगर इस धुंधलाई चमक का बड़ा सकारात्मक लोकतांत्रिक संदेश भी इस मुल्क के मतदाताओं ने राजनीतिक दलों को दिया है। मतदाताओं ने पक्ष के साथ प्रतिपक्ष के प्रति भी भरपूर भरोसा जताया है। पिछली लोकसभा की तरह उसका आकार इस बार निर्बल और महीन नहीं है। वह अब पक्ष की आंखों में आंखें डालकर राष्ट्र की समस्याओं से लेकर नीति विषयक कठिन सवाल पूछ सकता है। 

भले ही भाजपा इससे अपने को असहज महसूस करे, लेकिन अब विपक्ष का सम्मान और उसकी शंकाओं का समाधान सत्तारूढ़ पार्टी का अनिवार्य कर्तव्य है। विपक्षी सवालों के घेरे से बच निकलने की कोशिश अब वह नहीं कर सकती। भारत के लोग उम्मीद कर सकते हैं कि संसद और संविधान की सर्वोच्चता का सभी दल सम्मान करेंगे। बीते दिनों मैंने इसी पृष्ठ पर लिखा था कि भारी बहुमत वाला एकतरफा जनादेश किसी भी गणतंत्र के लिए खतरे से खाली नहीं होता। पक्ष हमेशा बहुमत पर गर्वोन्मत्त रहता है और विपक्ष अपने बौनेपन के कारण अवसादग्रस्त रहता है। 

पिछली बार का उदाहरण है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए किस तरह जद्दोजहद हुई थी और सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को संसदीय भूमिका निभाने का अवसर आसानी से नहीं मिला था। इस बार सरकार विपक्ष के सवालों की उपेक्षा नहीं कर सकती और न विपक्ष के पास सार्थक भूमिका नहीं निभाने के लिए कोई बहाना है।

लोकतांत्रिक संतुलन के चलते ही मुल्क के मतदाता मिलीजुली सरकार से अनेक परिणाम चाहते हैं। यह गैरवाजिब नहीं है। जनादेश उन चुनौतियों से निपटने के लिए एनडीए सरकार से अपेक्षा करता है, जो नए भारत में दिनोंदिन विकराल हो रही हैं। अलबत्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी बड़ी चुनौती यही है कि इस बार उन्हें गठबंधन के सहयोगी दलों को भी जिम्मेदारी से साथ लेकर चलना होगा। जाहिर है कि प्राथमिकता की सूची में सर्वसम्मत न्यूनतम साझा कार्यक्रम सर्वोपरि होगा। अर्थ यह है कि भाजपा की अपनी प्राथमिकताएं हाशिये पर ही रहेंगी।

किसी भी सरकार के लिए अवाम के दिलों में छवि निर्माण का काम इन दिनों अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है। एक बार जो छवि बन जाती है, उसे बदलना आसान नहीं होता। इस बरस लोकसभा चुनावों का ऐलान हुआ तो सत्तारूढ़ दल से जुड़े कुछ नेताओं के बयानों से धारणा बन रही थी कि भाजपा की सरकार संविधान में बदलाव की मंशा रखती है। चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीतने के बाद संविधान की प्रति को सिर से लगाकर सम्मान देने की भावना का सार्वजनिक इजहार कर दिया है। मगर उनकी पार्टी के लोग भी ऐसा करें तो लोगों में भरोसा जगेगा। 

संसद की सर्वोच्चता भी एक गंभीर मुद्दा है। संसद में मुल्क के महत्वपूर्ण मसलों पर गंभीर चर्चा हो। इन चर्चाओं में विपक्ष को शामिल किया जाए, संसदीय समितियों और उनके कामकाज को प्रधानता दी जानी चाहिए। देश का कोई बड़ा और नीति विषयक निर्णय संसद में ही होना चाहिए। सामूहिक विमर्श से हमेशा बेहतर परिणाम मिलते हैं। यही लोकतंत्र का तकाजा है। इसके अलावा सरकार की धर्मनिरपेक्ष छवि पर भी पिछले कार्यकाल में कई बार सवाल उठे थे। कुछ घटनाओं से इन सवालों-संदेहों को बल मिला। पार्टी ने अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों को लोकसभा का टिकट देने में कंजूसी बरती। इसका संदेश अच्छा नहीं गया। 

धर्मनिरपेक्षता के बारे में उनकी सरकार के कामकाज से ही छवि बदलेगी। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार में शामिल दो बड़े घटक दल तेलुगुदेशम और जनता दल (यू) का परोक्ष दबाव भी रहेगा। इन दोनों पार्टियों का भाजपा के साथ वैचारिक मतभेद रहा है। भले ही वे एनडीए में शामिल रहे हैं। मगर उनका रवैया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरे कार्यकाल में सतर्क रहने के लिए बाध्य करता रहेगा। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू सियासत में प्रधानमंत्री से वरिष्ठ हैं और सियासी शतरंज की चालों को बखूबी समझते हैं। उनको संतुष्ट करना समूचे कार्यकाल में प्रधानमंत्री के लिए अलग चुनौती बना रहेगा।

अच्छी बात है कि शपथ समारोह का भागीदार बनाने के लिए नई सरकार ने पड़ोसी देशों को आमंत्रित किया। महत्वपूर्ण यह है कि मालदीव के राष्ट्रपति भी इसमें आए। वे भारत विरोधी रवैये के लिए जाने जाते हैं। बीते दिनों अपने इंडिया आउट के फैसले के बारे में भारत में काफी आलोचना का शिकार हुए हैं। वे खुले तौर पर चीन समर्थक हैं। उन्हें न्यौता देकर इस सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के उस कथन का सम्मान किया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हम सब कुछ बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसियों को नहीं। यह भावना नई सरकार की विदेश नीति में झलकनी चाहिए।

इस बार चुनाव के प्रचार अभियान के आकाश पर महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के आरोपों के घने बादल मंडराते रहे। दस वर्षों में भारत के लिए यह तीन मुद्दे बड़ी चुनौती बने रहे हैं। एनडीए सरकार के लिए तमाम प्राथमिकताओं से ऊपर इन समस्याओं से निजात पाना बेहद जरूरी है। यदि इन पर ध्यान नहीं दिया गया तो अगले चुनाव में यह मुद्दे सरकार के लिए फिर संकट बन सकते हैं। सरकार को सरकारी सेवाओं के दरवाजे और बड़े करने होंगे तथा किसानों, युवाओं के लिए खास तौर पर काम करना होगा।

Web Title: challenges of concerns for Parliament or Constitution

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