ब्लॉग: खालिस्तान के पैरोकार कभी लाहौर पर अपनी दावेदारी क्यों नहीं करते? गुरु नानक के जन्मस्थान पर भी कोई दावा नहीं

By अभय कुमार दुबे | Published: April 4, 2023 12:04 PM2023-04-04T12:04:52+5:302023-04-04T12:04:52+5:30

Blog: Why Khalistan advocates never stake their claim on Lahore | ब्लॉग: खालिस्तान के पैरोकार कभी लाहौर पर अपनी दावेदारी क्यों नहीं करते? गुरु नानक के जन्मस्थान पर भी कोई दावा नहीं

गुरु नानक के जन्मस्थान पर भी कोई दावा क्यों नहीं करते खालिस्तान समर्थक?

कश्मीर के आतंकवाद और पंजाब के आतंकवाद के बीच एक ऐसा समीकरण है जिसमें विभिन्न घटकों को जोड़ने का काम पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर सर्विस इंटेलिजेंस करती है. यही कारण है कि खालिस्तान के पैरोकार कभी लाहौर पर अपनी दावेदारी नहीं करते. और तो और, वे गुरु नानक के जन्मस्थान पर भी कोई दावा नहीं करते. हम जानते हैं कि लाहौर महाराजा रंजीत सिंह की राजधानी थी. वही रंजीत सिंह, जिनके राज के नाम पर खालिस्तानी कहते फिरते हैं कि उनका तो पहले अलग राज था. 

इस समय भी पंजाब एक बार फिर उसी खालिस्तानी हवा की गर्मी से खुद को बचाने की कवायद में लगा हुआ है. राज्य सरकार केंद्र सरकार की मदद से ‘वारिस पंजाब दे’ और उसके नेता अमृतपाल सिंह की गतिविधियों पर शिकंजा कसने में लगी हुई है. सारा देश दम साध कर इस घटनाक्रम को देख रहा है. सवाल है कि क्या अमृतपाल की गिरफ्तारी खालिस्तानी गतिविधियों के अंत की घोषणा होगी- और उसके कारण हमारी राजनीति और समाज को कोई और नुकसान नहीं होगा?

किसान आंदोलन की असाधारण सफलता ने सबसे ज्यादा जिन ताकतों को चिंतित किया था, उनकी सूची में खालिस्तान परस्तों का नाम सबसे ऊपर था. उनकी निगाहों के सामने लोग उनके झंडे की उपेक्षा करके किसान यूनियनों के तहत गोलबंद होते जा रहे थे. पंजाब का वारिस किसान आंदोलन जैसी रैडिकल ताकत न बनने पाए, इसीलिए ‘वारिस पंजाब दे’ जैसा संगठन बनाया गया. शुरू में इसकी डोर पंजाबी फिल्मों में काम करने वाले दीप सिद्धू के  हाथ में थी. 

दीप सिद्धू ने लाल किले वाले प्रकरण में हस्तक्षेपकारी भूमिका निभा कर सिख अलगाववाद की दावेदारी पेश करने की कोशिश की थी. इसके कारण एक बारगी किसान आंदोलन के बहक जाने और खत्म हो जाने का अंदेशा पैदा हो गया था. परंतु आंदोलन की दृढ़ता ने गाजीपुर बॉर्डर की घटना के जरिये उसे बचा लिया. बाद में दीप सिद्धू का सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया. लेकिन अलगाववादियों ने पहला मौका देखते ही दुर्घटना को साजिश और दीप सिद्धू को शहीद घोषित कर दिया. उसके उत्तराधिकारी की तलाश होने लगी. 

इस प्रक्रिया के गर्भ से अमृतपाल सिंह का जन्म हुआ. दुबई में अपने परिवार के ट्रांसपोर्ट धंधे में काम करने वाला 28-29 साल का यह युवक सोशल मीडिया पर दीप सिद्धू से बहस करता रहता था. उसके विचार सिद्धू से भी गर्म थे. जाहिर है कि खालिस्तानियों के लिए वह दीप सिद्धू के मुकाबले अधिक उपयोगी साबित होने वाला था. कटे बालों, सफाचट दाढ़ी के साथ मौज-मजे वाली फिल्मी जीवन शैली के शौकीन सिद्धू के विपरीत अमृतपाल ने फटाफट दाढ़ी-मूंछ उगाई, बाल बढ़ाए, भिंडरांवाले जैसी सिख संतों वाली पगड़ी-पोशाक धारण की- और एकदम भिंडरांवाले की अदाओं की हूबहू नकल करते हुए ‘वारिस पंजाब दे’ की अगुआई करनी शुरू कर दी. 

कम पढ़े-लिखे और पॉलिटेक्निक के इस विफल विद्यार्थी की अकेली खूबी यह साबित हुई कि उसने अपनी एक्टिंग से भारतीय मीडिया को यकीन दिला दिया कि वह ‘भिंडरांवाले 2.0’ बनने की तरफ जा रहा है. किसी भी तरह की सनसनी की संभावनाओं की हरदम तलाश करने वाले मीडिया के एक वर्ग से लेकर सोशल मीडिया तक सभी ने अमृतपाल की इस छवि को तैयार करने में प्रभावी भूमिका का निर्वाह किया.

समस्या केवल एक थी. जिस तरह दीप सिद्धू के पास जमीनी समर्थक नहीं थे, उसी तरह अमृतपाल के पास भी कोई जनाधार नहीं था. इसलिए जैसे ही पंजाब सरकार ने उसकी गिरफ्तारी की कार्रवाई शुरू की, वैसे ही उसकी बड़ी-बड़ी बातों की पोल खुल गई. उसके पक्ष में कोई खड़ा नहीं हुआ. किसी ने आवाज नहीं उठाई. आज नहीं तो कल, अमृतपाल का पकड़ा जाना और कानून के कठघरे में खड़ा होना अब तयशुदा है. अमृतपाल के पक्ष में अगर कुछ हुआ है तो विदेशों में अनिवासी सिखों द्वारा किया गया है. लेकिन उससे आम लोगों के बीच इन एनआरआई लाबियों की साख ही गिरी है.

किसान आंदोलन इस लिहाज से ऐतिहासिक था कि उसने बहुत दिनों बाद पंजाब के समाज में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान समाजों के बीच भी एक राजनीतिक-सामाजिक एकता की रचना की थी. इस एकात्मकता में हिंदू, मुसलमान और सिख एक साथ शामिल थे. इनके साथ शहरी और अर्धशहरी मध्यवर्ग की हमदर्दी भी थी. इस तरह की लंबी खिंचने वाली घटनाएं पंजाब जैसे राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश के लोकप्रिय मानस पर अपने गहरे निशान छोड़ जाती हैं. 

अमृतपाल की शक्ल में चली खालिस्तानी हवा से निकले अंदेशों के कारण डर है कि पंजाब के सिख, हिंदू और दलित पहले जैसी आश्वस्ति के साथ राजनीतिक एकता नहीं कर पाएंगे. इसका लाभ उन शक्तियों को मिलेगा जो चाहती हैं कि ये समुदाय 2024 के चुनाव के पहले की तरह अपनी-अपनी राजनीतिक प्राथमिकताएं फिर से अलग-अलग निर्धारित करने लगें. इसके प्रभाव में किसान आंदोलन के कारण पंजाब के बाहर बना हमजोलीपन भी कमजोर हुआ है. खालिस्तान के प्रेत की वापसी तो नहीं हो पाई, लेकिन वह जनता को बांटने में जरूर कामयाब हो गया.

Web Title: Blog: Why Khalistan advocates never stake their claim on Lahore

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