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ब्लॉग: बाबासाहब भीमराव आंबेडकर के सपनों के भारत के मायने क्या है?

By प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल | Updated: April 14, 2023 07:31 IST

बाबासाहब जिस भारत का सपना देख रहे थे, समग्रता में जिस भारत की कामना कर रहे थे और संघर्ष कर रहे थे, उसमें विविध आयाम हैं और उसको स्थापित करने, समझने का मार्ग  केवल संवाद के माध्यम से मिलता है.

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बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्व की उन महान विभूतियों में अनन्यतम हैं जिन्होंने समाजोद्धार के लिए व्यक्ति परिवर्तन का पथ प्रशस्त किया. बाबासाहब का जीवन स्वयं को निर्मित कर, लक्ष्य के अनुरूप बनकर, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शेष समाज को साथ लेकर, आवश्यक संघर्ष को स्वीकार कर; किंतु संघर्ष के माध्यम से किसी प्रकार के विद्रोह की निर्मिति न हो, इसके लिए लगातार सावधान रहते हुए सुधार और श्रेष्ठ की प्राप्ति के यत्न का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है. 

बाबासाहब के पूर्व भी भारत में और भारत के बाहर भी समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आंदोलन दृष्टिगोचर होते हैं. लेकिन बाबासाहब ने इसे भारतीय संदर्भों में प्रस्तुत कर यह स्थापित किया कि बगैर विधि व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था के समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व न तो अर्जित किया जा सकता है और न ही इसका रक्षण संभव है. उन्होंने दूसरी महत्वपूर्ण बात कही कि मात्र पारलौकिक आस्थाओं के आधार पर संचालित है तो उसमें तर्कबुद्धि का स्थान नगण्य हो जाता है. सभ्य समाज वह है जो इहलौकिक व्यवस्था को तर्कबुद्धि और संविधि के आधार पर चलाता है लेकिन इसका उद्देश्य आध्यात्मिक व्यवस्था का निषेध और मूलोच्छेद करना नहीं है.

मनुष्य के लौकिक जीवन में एक ऐसे संविधान की अपेक्षा है जिसमें लोकतांत्रिक मूल्य स्थापित हों. लेकिन उतनी ही आवश्यकता नागरिक को एक सामाजिक और राष्ट्रीय व्यक्ति बनाने की जीवनदृष्टि वाले धम्म या धर्म की भी है. क्योंकि नैतिकता विधि से नहीं ‘धम्म’ से आती है और जो समाज नैतिकता पर आधारित नहीं होता है, वह समाज सभ्य और सुसंस्कृत समाज नहीं है. पश्चिम यह मान रहा था कि ईश्वर हो या न हो, नैतिकता के लिए ईश्वर, नित्य आत्मा आवश्यक है. 

बाबासाहब नैतिकता की स्थापना के लिए ईश्वर और नित्य आत्मा का निषेध करते हैं. भगवान बुद्ध ने भी इनका निषेध किया और अनित्यवाद की स्थापना की; इसलिए वे बुद्ध ‘धम्म’ को एक ‘वैज्ञानिक धम्म’ के रूप में, ‘सद्धर्म’ को मनुष्य के लिए एक उचित धम्म रूप में प्रतिपादित करते हैं. लेकिन बाबासाहब बुद्ध के कालखंड से 26 सौ वर्ष आगे खड़े होकर विचार कर रहे हैं तो वह कहते हैं कि पुनर्जन्म की भी आवश्यकता नहीं. नैतिकता के लिए ऐसी व्यवस्था की निर्मिति करनी पड़ेगी जिसमें मनुष्य को उसके कर्मों के परिणाम इसी जीवन में प्राप्त हो जाएं तो पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर इस जीवन में श्रेष्ठता प्राप्ति का तर्क भी स्वत: समाप्त हो जाए. 

भारत के संविधान में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का प्राणतत्व इसी दृष्टिकोण पर आधारित है. प्रत्येक मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता है, चयन की स्वतंत्रता है. उस चयन की स्वतंत्रता के आधार पर जो कर्म करता है, उन कर्मों के परिणाम वैज्ञानिक नियमों के अंतर्गत इसी जीवन में प्राप्त होने की जो व्यवस्था है वह व्यवस्था सांविधिक और वैधानिक है. वही मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली व्यवस्था है.  

बाबासाहब के कालखंड में पूरी दुनिया जाति व्यवस्था तथा रंगभेद से त्रस्त थी, विशिष्ट जातियों में जन्म लेने से ही जन्मना श्रेष्ठता प्राप्त थी; इस प्रकार की अवधारणाएं बद्धमूल हो गई थीं. लेकिन इनको उपदेश से खत्म नहीं किया जा सकता था, इसके लिए एक युक्तिसंगत व्यवस्था अपेक्षित थी और उसकी पूर्णता संविधान से प्राप्त हुई. भारत के संविधान में वर्णित प्रस्तावना और मौलिक अधिकार एक विलक्षण अवधारणा है जो मनुष्य को सामाजिक समानता, आर्थिक रूप से यथासंभव समता, अवसर की समानता, न्याय की समानता, उपासना पद्धति तथा आस्था को मानने की स्वतंत्रता आदि सभी प्रकार की आवश्यकताओं का सांविधिक प्रतिपादन करती है.  

भारत एक दृष्टि से और भी विशिष्ट है. जिन देशों ने मानव अधिकारों, मानवीय गरिमा के लिए सवा दो सौ वर्ष पूर्व संवैधानिक व्यवस्था बनाई थी, उनके बच्चे स्कूलों में गोलियों से मारे जा रहे हैं, क्योंकि उन्होंने सारी व्यवस्थाएं बनाईं लेकिन ये व्यवस्थाएं चलेंगी किस आधार पर, इसका विचार नहीं किया.

बाबासाहब ने इस दृष्टि से कहा था कि-करुणा और अहिंसा के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है; इसलिए एक तरफ समाज तथा राष्ट्र के संचालन के लिए एक संविधान होना चाहिए और संविधान मनुष्य की गरिमा की रक्षा के सभी उपायों को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करने वाला होना चाहिए. बाबासाहब की जीवनदृष्टि युक्तियुक्तता (संविधान) के साथ धर्मयुक्तता पर अवलंबित थी.

बाबासाहब समग्रता में जिस भारत का सपना देख रहे थे, समग्रता में जिस भारत की कामना और संघर्ष कर रहे थे उस संघर्ष के विविध आयाम हैं और उसको स्थापित करने, समझने का मार्ग  केवल संवाद के माध्यम से मिलता है.

बाबासाहब न होते तो शायद भारत आज यह नहीं कह सकता कि भारत लोकतंत्र की जननी है. दुनिया ने लोकतंत्र का पाठ भारत से पढ़ा है. भारत में लोकतंत्र वह व्यवस्था है जिसमें उपाली जैसा साधारण व्यक्ति भी बुद्ध के वचनों को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है; 

गणिका भी धम्मोपदेशक बनती है. समाज में भौतिकता जीवन व्यवहार का हिस्सा है, लेकिन व्यक्ति के रूप में, ज्ञान के रूप में, विचार के रूप में सद्विचार कर ग्रहण करके, उसको सद्धर्म में रूपांतरित कर ही श्रेष्ठ समाज बनेगा और 21वीं शताब्दी की चुनौतियों का सामना कर भारत को वैश्विक स्तर पर नेतृत्व दिलाने वाली सामाजिक शक्ति होगा.

टॅग्स :Bhimrao Ambedkar
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