ब्लॉग: सिर्फ सत्ता के लिए नहीं होते सियासी गठबंधन
By राजेश बादल | Published: February 1, 2024 10:14 AM2024-02-01T10:14:29+5:302024-02-01T10:17:58+5:30
नीतीश कुमार ने चंद रोज पहले पाला बदला तो राजनीतिक गलियारों में भूचाल आ गया। इंडिया गठबंधन के भविष्य को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हो गया।
नीतीश कुमार ने चंद रोज पहले पाला बदला तो राजनीतिक गलियारों में भूचाल आ गया। इंडिया गठबंधन के भविष्य को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हो गया। राजनीतिक पंडितों का एक वर्ग विलाप सा करता दिखाई दिया। उनके विश्लेषणों से झलक रहा था मानों नीतीश कुमार के जाने से इंडिया के हाथ से आई सत्ता निकल गई है और इंडिया एक के बाद एक गलतियां करता जा रहा है। दूसरे वर्ग ने चुनाव से पहले इसे नीतीश कुमार की कूटनीतिक कामयाबी करार दिया। उसने तो यहां तक कहा कि बिहार में भाजपा को प्राणवायु मिल गई है।
यदि नीतीश भाजपा के पक्ष में नहीं आते तो बिहार में पार्टी की मुश्किलें बढ़ जातीं यानी एक राजनीतिक घटना के अनेक रूप दिखाई दे रहे हैं। मुमकिन है कि सारी धारणाएं सही हों और यह भी संभव है कि एक भी अनुमान सच साबित नहीं हो। कह सकते हैं कि मौजूदा सियासत सिर्फ इस बात के लिए होने लगी है कि कोई दल या गठबंधन सरकार में रहता है अथवा नहीं। सरकार में रहना किसी भी सियासी पार्टी के लिए निश्चित रूप से फायदेमंद होता है।
वह जनकल्याण की दिशा में अपनी पार्टी की नीतियों के अनुरूप कार्यक्रम बना सकती है और अपनी पार्टी की वित्तीय स्थिति भी सुधार सकती है पर यह भी सच है कि बहुदलीय लोकतंत्र में सारे दल तो सरकार नहीं बना सकते। एक पार्टी या गठबंधन को तो प्रतिपक्ष के कर्तव्य का निर्वहन करना ही होता है। इस तथ्य को जानते हुए भी पार्टियां सत्ता हथियाने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देती हैं।
बहस का बिंदु यहीं से प्रारंभ होता । जितनी आया राम गया राम की स्थिति भारत में बनती है, संसार के किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में नहीं दिखाई देती। अपवादों को छोड़ दें तो अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करती । चुनाव में बहुमत नहीं मिलने पर विरोधी दल सरकार बनाने वाली पार्टी के पीछे नहीं पड़ जाते और न ही निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त का सिलसिला शुरू होता है।
सत्ता हथियाने की मंडी भारत में चौबीस घंटे खुली रहती है। अब तो पॉलिटिकल पार्टियां चुनाव संपन्न होते ही पराजय को भूलकर इस जुगाड़ में लग जाती हैं कि क्या वे जनादेश नहीं होते हुए भी सरकार बना सकती हैं। इसीलिए हम पाते हैं कि बहुमत छूने वाली राजनीतिक पार्टी भी कभी-कभी सत्ता से दूर रह जाती है और पराजित दल आपस में मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश कर देते हैं।
वास्तव में किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में यही बेहतर होता है कि जिस दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिले, वह प्रतिपक्ष में बैठे और अगला चुनाव आने का इंतजार करे। इस दरम्यान वह जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करे। क्या कोई लोकतंत्र विपक्ष के बिना चल सकता है? हम किसी भी राजनीतिक तंत्र में इसकी कल्पना भी नहीं कर । इतना ही नहीं, पक्ष और प्रतिपक्ष की ताकत में आनुपातिक संतुलन होना आवश्यक है। यदि विपक्ष बेहद कमजोर है तो वह सरकार या सत्ताधारी पार्टी पर दबाव बनाने में असफल रहता है। दूसरी ओर पक्ष यदि आवश्यकता से अधिक ताकतवर हो जाए तो उसके भीतर अनेक राजरोग पनपने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
इनमें भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, कुनबापरस्ती, अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के उभरने जैसी अनेक बीमारियां शामिल हैं। दुर्बल और दीनहीन प्रतिपक्ष प्रजातंत्र में किसी काम का नहीं है। ऐसे में यह बात कोई मायने नहीं रखती कि नीतीश कुमार के जाने या आने से क्या हो जाएगा। महत्वपूर्ण यह है कि मौजूदा भारतीय राजनीति की लोकतांत्रिक सेहत पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
पिछले दिनों जिस तरह से राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ था, उससे यह आशा बंधी थी कि अब भारतीय लोकतंत्र में सियासत के दो वैचारिक ध्रुव बन रहे हैं। एक भाजपा की वैचारिक धारा का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा कांग्रेस की विचार शैली के साथ है।
भारतीय राजनीति में यह स्थिति पहली बार बनी थी। यह ठीकठाक सी स्थिति थी लेकिन अब गठबंधनों का वैचारिक आधार खिसकता दिखाई दे रहा है। नेताओं और दलों के अपने हित गठबंधन पर हावी हो रहे हैं। गठबंधन में शामिल पार्टियां विपक्ष में रहना पसंद ही नहीं करतीं। यह अनेक आशंकाओं को जन्म देता है। उधर, जब मतदाताओं को आभास होने लगता है कि उसके वोट का सैद्धांतिक उपयोग नहीं हो रहा है, उसकी उपेक्षा हो रही है तो वह अपमानित और ठगा हुआ महसूस करता है।
वोट का दुरुपयोग केवल सत्ता की मलाई खाने के लिए हो या फिर किसी को सत्ता से उतारने के लिए हो रहा हो तो उसे कोई भी अच्छा नहीं मानेगा। भारतीय राजनीतिक दलों को समझना होगा कि आज का मतदाता अधिक जागरूक और जिम्मेदार है। वह जानता है कि जिन प्रतिनिधियों को वह लोकतांत्रिक पद्धति से चुनकर भेज रहा है, वे असल में जनतांत्रिक आधारों पर नहीं टिके हैं। उनके प्रादेशिक और क्षेत्रीय दल भी सामंती मिजाज से काम कर रहे हैं तो उसका मोहभंग स्वाभाविक है। इस मोहभंग में छिपी चेतावनी भी राजनीतिक पार्टियों और नुमाइंदों को ध्यान में रखनी चाहिए।