गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: सांस्कृतिक पुनर्जागरण में संस्कृत की भूमिका
By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 3, 2020 12:19 PM2020-08-03T12:19:29+5:302020-08-03T12:19:29+5:30
स्कृत भाषा और साहित्य एक ऐसा स्रोत प्रतीत होता है जिसकी संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए. कहना न होगा कि संस्कृत भारत की अनेक भाषाओं की जननी है और अनेक स्तरों पर उसकी उपस्थिति हमारे व्यवहार के चेतन और अचेतन स्तर पर बनी हुई है.
भारतीय प्रायद्वीप में संस्कृति के विकास की कथा की व्यापकता और गहनता का विश्व में कोई और उदाहरण नहीं मिलता, न ही वैसी जिजीविषा का ही कोई प्रमाण मिलता है. नाना प्रकार के झंझावातों को सहते हुए यदि हजारों वर्ष बाद भी वह आज जीवित है तो यह उसकी आंतरिक प्राणवत्ता के कारण ही संभव है. यह विकट सांस्कृतिक यात्ना जिस पाथेय के भरोसे संभव होती रही, वह निश्चय ही संस्कृत भाषा है. इसके विपुल और विविधतापूर्ण साहित्य की गरिमा को बनाए रखने की आवश्यकता को प्राय: भुला दिया जाता है. इसका कारण हमारी अज्ञानता और भ्रम है जो उस अपरिचय के कारण है जो हमें अपनी शिक्षा से मिलता रहा है. परंतु परिचय न होने के कारण भ्रम ही सत्य का रूप ले लेता है.
अंग्रेजों ने जो पाठय़क्रम और पद्धति स्थापित की उसमें भारत, भारतीयता और यहां की अपनी स्थानीय ज्ञान परंपरा को ध्यानपूर्वक बाहर कर दिया गया और उसे अवैज्ञानिक, परलोकवादी तथा अनावश्यक करार देते हुए मुख्य धारा से परे धकेल दिया गया. संस्कृत अनुष्ठानों के लिए आरक्षित कर दी गई. वह देव-वाणी मनुष्य के लिए वर्जित अजूबा बना दी गई. यह सब आम आदमी के मन में संस्कृत भाषा के विषय में मिथ्या प्रवाद के लिए पर्याप्त था.
सांस्कृतिक घुसपैठ ने हमारे नजरिये और विश्व दृष्टि को ही बदलना शुरू किया
हम संस्कृत को अनौपचारिक अवसरों यथा जीवन-संस्कार, पूजन, उद्घाटन और समापन के लिए औपचारिक महत्व देते रहे पर सक्रिय जीवन की देहरी के पार ही बैठाते रहे. हमारे पास यह अवकाश नहीं रहा कि हम इस अमूल्य विरासत का मूल्य समझ पाते. शिक्षा, परिवार, राजनय, व्यवसाय, वाणिज्य, स्वास्थ्य, प्रकृति, जीवन, जगत और ईश्वर को लेकर उपलब्ध चिंतन बेमानी बना रहा. हम सब वेद, वेदांग, पुराण, स्मृति, साहित्य, व्याकरण, आयुर्वेद, दर्शन, नाट्यशास्त्न, अर्थशास्त्न, योगशास्त्न, ज्योतिष, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत आदि का नाम तो सुनते रहे, पर बिना श्रद्धा के और उनके प्रति मन में संदेह और दुविधा पालते रहे. इसलिए इनके अध्ययन और उपयोग की प्रक्रिया बाधित और विश्रृंखलित हुई.
दूसरी ओर इनके बाद पनपे पश्चिमी जगत के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रति सहज श्रद्धा से अभिभूत हो उसे अपनाते गए, बिना यह देखे जांचे कि उसका स्वरूप और लाभ कितना है. उसकी सांस्कृतिक घुसपैठ ने हमारे नजरिये और विश्व दृष्टि को ही बदलना शुरू किया. आज भौतिकता और उपभोक्तावाद की अति के खतरनाक परिणाम सबके सामने हैं. पूरा विश्व त्नस्त हो रहा है.
पश्चिम के अनुसरण में हमारी व्यस्तता के बाद मौलिकता और सृजनात्मकता के लिए अवकाश ही नहीं बचता है
भारत में अकादमिक समाजीकरण की जो धारा बही, उसमें हमारी सोच परमुखापेक्षी होती गई और हमारे लिए ज्ञान का संदर्भ बिंदु पश्चिमी चिंतन होता गया. ज्ञान के लिए पूरी परनिर्भरता स्थापित होती गई. हम उन्हीं की विचार-सरणि का अनुगमन करते रहे और श्रम, समय और संसाधन बहुत कुछ निरुद्देश्य नकल करने में ही जाता रहा. ज्ञान की राजनीति से बेखबर या उसमें फंसकर हम ज्ञान में किसी तरह के नए उन्मेष से वंचित होते गए. पश्चिम के अनुसरण में हमारी व्यस्तता के बाद मौलिकता और सृजनात्मकता के लिए अवकाश ही नहीं बचता है. ऐसे में जो शोध के नाम पर होता है वह न पश्चिमी दुनिया के काम का होता है न अपने काम का. इस तरह के अतिरिक्त और अनावश्यक मानसिक भार के साथ शोध और अनुसंधान की कोशिश प्राय: व्यर्थ ही सिद्ध हुई है.
इस पृष्ठभूमि में संस्कृत भाषा और साहित्य एक ऐसा स्रोत प्रतीत होता है जिसकी संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए. कहना न होगा कि संस्कृत भारत की अनेक भाषाओं की जननी है और अनेक स्तरों पर उसकी उपस्थिति हमारे व्यवहार के चेतन और अचेतन स्तर पर बनी हुई है. भाषा, समाज और व्यवहार के अंर्त्सबंध व्यापक महत्व रखते हैं. अत: इनके बल पर समाज और व्यक्ति के विचारों और व्यवहारों की कोटियों और उनके अंर्तसबंधों को तलाशने की कोशिश होनी चाहिए. शास्त्नीय चिंतन को समझना और उसका उपयोग विभिन्न क्षेत्नों में व्यावहारिक समाधान में उपयोगी होगा. योग और आयुर्वेद को लेकर उत्सुकता बढ़ी है पर अन्य क्षेत्न अभी भी उपेक्षित हैं. साथ ही संस्कृत के ज्ञान से वे भ्रम भी दूर होंगे जो कई क्षेत्नों में फैल रहे हैं.
जैसे योग को मात्न आसन और व्यायाम मान लेना. ज्ञान की भाषा के रूप में यदि अंग्रेजी पढ़ाई जाती है तो संस्कृत के लिए भी यह अवसर मिलना चाहिए. भाषा की दृष्टि से सहज और नियमबद्ध होने से संस्कृत को सीखना सरल भी है और उसका लाभ अन्य भाषाओं को सीखने में भी मिलेगा. संस्कृत समझना व बोलना भारतीय संस्कृति को आत्मसात करने और समृद्ध करने के लिए अर्थात हमारे आत्मबोध के लिए अनिवार्य है. इसे शिक्षा में शुरू से ही स्थान मिलना चाहिए.